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श्रावकाचार - संग्रह
विसय कसाय - वसण-निवहु अण्णु वि मिच्छाभाउ । पित्तणु कक्कसवाणु मिल्लहि सयलु अणाउ ।। १४४
अण्णाएं आवंति जिय आवइ' धरण ण' जाइ । उम्मग्गे चल्लंतयहं कंटउ भज्जइ पाइ ।। १४५ परिहरि पुत्तु वि अप्पणउ जसु अण्णायपवित्ति । अप्पणियां मरइ कुसियारउ ण उ भंति ॥ अण्णाएं बलियहं विखउ कि दुब्बलहं ण जाइ। जहं बाएं वच्चति गय तह कि पूणी' ठाइ || १४७ अण्णाएं दालिद्दियहं रे जिय दुहु आवग्गु । लक्कडियहं त्रिणु खोडयहं मग्गु सचिवखलु दुग्गु || १४८ अण्णाएं दालिद्दियहं ओहट्टइ णिव्बाहु । लुंगउ' पायपसारणई फिट्टइ५ को संदेहु ११४९ ता अच्छउ जिय पिसुणमइ संगु जि ताह विरुध्दु सप्पह संग कट्टियउ चंदणु पिवखु सुबंधु ॥। १५० बिहडावर ण हु संघडइ पिसुणु परायउ हु । टालइ रय' ण उत्तिडउ उंदरु को संदेह ।। २५१ धम्मं विणु जे सुक्खडा तुट्टा गया वियार । तरुवर खंडिवि खुडिय ते फल एक्कु जिवार ॥ १५२ सुहियउ हुवउ ण कोवि इह रे जिय गरु पावेण । कद्दमि ताडिउ उट्ठियउ गिदुर विदुर केण । । १५३ रे जिय पुव्विणि धम्म किउ एवहि करि संताव | भंति कवण दिणु णावियई खडहडि निवडइ णाव ॥१५४
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करती हैं, सो हे जीव, वह भी मौनरूप स्वमुद्रावाले तुझ में निवास करे । भावार्थ- प्राकृत 'समुद्दि ' पदका संस्कृतरूप 'समुद्र' और 'स्वमुद्रे' दोनों होते है । यतः लक्ष्मी समुद्र में निवास करती है, यह प्रसिद्धि है, अतः वह समुद्रा वाले मौनभोजी पुरुषमें भी रहे, ऐसा अभिप्राय ग्रन्थकारने आशीर्वादरूपसे प्रकट किया हैं || १४३ ॥ विषय, कषाय, व्यसन समूह, पिशुनता, कर्कश वचन, सकल अन्याय और अन्य सर्व मिथ्याभाव इनको भी छोड देना चाहिए || १४४ ।। हे जीव, अन्याय से आपत्तियाँ आती है, फिर उन्हें रोका नहीं जा सकता । उन्मार्गपर चलनेवालोंका पांव काँटेसे भग्न होता हैं ।। १४५ ।। जिसकी अन्याय में प्रवृत्ति हो, ऐसे अपने पुत्रका भी परिहार कर । देखो - कुशियारा कीड अपनी ही लारसे मरता है, इसमें कोई भ्रान्ति नहीं है ।। १४६ ॥ ॥
अन्याय से बलवानोंका भी क्षय हो जाता हैं, फिर क्या दुर्बलोंका क्षय नहीं होगा ? जिस वायुके वेगसे हाथी भी उड जाते हैं, वहां क्या रुईकी पोनी ठहर सकती हैं ||१४७।। रे जीव, अन्याय से दरिद्रियोंका दुःख और वढता है । लकडीके खोडों ( डूंडों) के विना वर्षा ऋतु मार्ग कीचडमय और दुर्गम हो जाता है। ( इसी प्रकार न्यायके खोडे लगाये विना दरिद्री पुरुषों की दशा और भी दुःखमय हो जाती है | ) || १४८ || अन्यायसे दरिद्री पुरुषोंका निर्वाह दूर हट जाता हैं । लुंगी पांवोंके पसारनेसे फटती ही है, इसमें क्या सन्देह हैं || १४९ || इसलिए हे जीव, पिशुनमति ( चुगलखोर) मनुष्यको दूर ही रहने दे, उसका संग भी बुरा होता हैं । देखो -सांपके संगसे सुगन्धी चन्दन वृक्ष भी काट दिया जाता है ।। १५० ।। पिशुन पुरुष परायें स्नेहको तोडता ही है, जोडता नहीं । देखो - उंदर ( चूहा ) बिलमेंसे रज निकालता ही हैं, उसे भरता नहीं, इसमें क्या सन्देह है ।।१५१॥ धर्मके विना जो सुख भोग हैं, उन्हें टूटा गया विचार । जो वृक्षको काट कर फल तोड़े जाते है, वे एक ही बार प्राप्त होते है ।१५२।। रे जीव, यहाँ पापसे कोई मनुष्य सुखी नहीं हुआ । कीचडमें मारी गई गेंद उठती हुई किसीने देखी हैं ।। १५३॥ रे जीव, पूर्व भव में धर्म नहीं १ ब टि. आपदः २ ब निषेध्दुं न शक्यते । ३ म सूणी । ४ ब लग्गउ | ५ म फाटइ । झ फट्टइ । झ फट्ट । ७ ब अरि । ८ म पुश्व । ९ ब खरहडि ।
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