Book Title: Shravakachar Sangraha Part 1
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 517
________________ ४९८ श्रावकाचार-संग्रह धम्में जं जं अहिलसइ तं तं लहइ अमेसु । पावें पावइ पावियउ वालिद्दु वि सकिलेसु ॥१६५ धम्म हरि हल चक्कवइ कुलयरु जायइ कोइ। भवणत्तयवंदियचलणु कुवि तित्थंकर होइ ।।१६६ जासु जणणि सग्गागमणि पिच्छइ सिविणय-पंति। पह तेएं संभावियइ सूरुग्गमण णं भंत्ति ।। १६७ जो जम्मुच्छवि कहावियउ अमियघडहिं सक्केण ।। - किम हा विज्जइ अतुलबल जिणु अहवाऽसक्केण ।। १६८ । सुरसायरि जसु णिक्कमणि घल्लइ चिहुर सुरिंदु । अह उत्तमकज्जहं हवइ ठाउ जि खोर समुदु ।। णाणुग्गमि जसु समवसरणि पत्तामरसंघाउ । होइ कमलमलियभसलु सूरुग्णमणि तलाउ ।।१७० जसु पत्तुत्तमराइयउ विलुलतो वि असोउ । 'अइदूरुज्झियपरियणहं किम उप्पज्जइ सोउ ।।१७१ वारिउ तिमिरु जिणेसरह भामंडल अदित्तु । हयतमु होइ सुहावणउ इ थु ण काइं विचित्तु ।।१७२ माहउ सरणु सिलीमुहउ कुसुमासणि 'थिप्पति । सुमणस अलियविवज्जिया जिणचलणहं णिवडंति ।।१७३ धवलु वि सुरमउड़कियउ सिंहागणु बहु रेइ । अह वा मुरमणिमंडियउ जिणवर आसणु होइ। १७४ सद्दमिसिण दुंदुहि रडइ छंडहु जीवहं खेरि' । हक्कारइ गर तिरिय सुर एग्सि होइ स भेरि ॥१७५ जीव धर्मसे जो जो अभिलाषा करता हैं, वह सबको पाता है। पापी जीव पापसे दरिद्रता भी पाता हैं और क्लेश युक्त भी रहता हैं ॥१६५।। धर्मसे कोई हरि, हलधर, चक्रवर्ती और कुलकर होता हैं और कोई भुवनत्रयसे वन्दित चरणवाला तीर्थकर भी होता है ।१६६।। जिसकी माता स्वर्गसे आगमनके समय स्वप्नोंकी पंक्ति देखती है । सूर्योदयकी संभावना होनेपर पथ (मार्ग) उसके तेजसे प्रकाशित हो जाता हैं,इसमें भ्रान्ति नहीं है ।।१६७।। जो तीर्थंकर जन्मोत्सवके समय शक्रके द्वारा अमृत घटोंसे नहलाये जाते हैं । अथवा अतुलवली जिनदेव क्या अशक्त पुरुषके द्वारा नहलाये जा सकते हैं।।१६८॥ निष्क्रमण कल्याणकके समय जिनके केशोंको सुरेन्द्र क्षीर सागरमें डालते है । अथवा उत्तम कार्योंका स्थान भी क्षीर सागर ही हैं ॥१६९।। केवलज्ञानके उदय होनेपर जिसके समवशरणमें देवोंका समदाय प्राप्त होता है। जैसे सूर्यके उदय होनेपर तालाब भ्रमर-संवेष्टित विकसित कमलवाला हो जाता हैं ॥१७०।। उन तीर्थंकरके ऊपर उत्तम पत्रोंसे विराजित अशोक वृक्ष लहलहाता हैं। (अशोक यह सूचित करता हैं कि) जिन्होंने परिजनोंको बहुत दूरसे परित्याग कर दिया,उन्हेंशोक कैसे उत्पन्न हो सकता हैं ॥१७१ । जिस जिनेश्वरका अज्ञान-अन्धकार दूर हो गया, उनका भामण्डस अतिदीप्त, अन्धकार-नाशक और सुहावना होता हैं, तो इसमें कोई विचित्र बात नहीं है ॥१७२।। माधव अर्थात् वसन्त ऋतु है शरण जिनके ऐसे भौंरे तो कुसुमोंके आसन पर बैठ कर तृप्त होते हैं। किन्तु अलि (भौंरोंसे) विवर्जित सुमनस (पुष्प) एवं अलीक (असत्य) रहित सुमनस (देव) जिनदेवके चरणों पर पड़ते हैं । समवशरणमें होनेवाली पुष्पवृष्टिको लक्ष्यमें रखकर ग्रन्थकारने उक्त श्लेषवाक्य लिखा है ।।१७३।। धवल ओर देवोंके मुकुटोंसे अंकित जिनदेवका सिंहासन बहुत शोभायुक्त होता है । अथवा जिनवरका आसन देव-मणियोंसे मंडित होता ही है ।।१७४।।शब्दके मिषसे दुंदुभि यह शब्द करती है कि जीवोंके प्रति वैरभाव छोडो । वह भेरी इस प्रकार मनुष्य, तिर्यंच और १ व टि. अति दूरे त्यक्तपरिजनस्य शोकः कथमुत्पद्यते । २ ब टि. माधवो वसन्तः शरणं स्यात । ३ वैरम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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