Book Title: Shravakachar Sangraha Part 1
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 508
________________ सावयधम्मदोहा ४८९ भोगहं करहि पमाणु जिय इंदिय म करि सदप्पु । हुंति ण भल्ला पोसिया दुद्धे काला सप्पु ॥६५ दिसि विदिसिहि परिमाणु करि जिय बहु जायइ जेण । साक्कलिहि 'आसागहिं संजमु पालिउ' तेण ॥६६ लोहु लक्ख विसु सणु मयणु दुट्टभरण पसुमारु । छडि अणत्थहं पिडि पडिउ किम तरिहहि संसारु । ६७ संझहि तिहि सामाइयां उप्पज्जइ बहु पुण्णु। कालि वरिट्टइं भंति कउ जइ उत्पज्जइ धष्णु॥६८ चिरकय कामहं खउ कर इ पवादहि उववासु । अहवा सोसइ सर-सलिल भंति ण गिभि विणेसु ॥ पत्तहं दिज्जइ दाणु जिय कालि विहाणे तंपि। अह विहि-विरहिउ बीउ वि फलइ ण किपि ॥७० सण्णासेण मरतयहं लठभइ इच्छियलद्धि । इत्थु ण कायउ भंति करि जहिं साहसु हि सिद्धि ॥७१ ए बारह वय जो करइ सो गच्छइ सुरलोई । सहसणयणु धरणिदि जहिं वण्णइ ताई विमोइ ।।७२ आउति सग्गहु चइवि उतमवंसहं हुंति । भुंजिवि हरि-बल-चक्किसुहु पुणु तक्यरणु करंति ।।७३ उक्किट्टई विहिं तिहिं भवहिं भुजिवि सुर-णरसोक्ख । जति जहण्णई धुणियरय भवि सत्तटुमि मोक्खु ।।७४ हे जीव, भोगोंका भी प्रमाण कर, इन्द्रियोंको दर्प-युक्त मत कर । दूधसे पोषण किये गये काले साँप भले नहीं होते हैं ।।६५॥ दिशा-विदिशाओंमें गमनागमनका प्रमाण कर, क्योंकि इनसे जीव-घात होता हैं। जिसने आशारूपी गजोंको सांखलोंसे बाँधा, उसने संयमका पालन किबा । कुछ प्रतियोंमें 'मोक्कलियई' पाठ है, तदनुसार यह अर्थ होता है कि जिसने आशारूपी गजोंको उन्मक्त छोडा, उसने अपने संयमका निपात कर दिया, इस अर्थमें 'पालिउ' के स्थान पर 'पाडिउ' पाठ समझना चाहिए, क्योंकि संस्कृत और प्राकृत भाषामें ड और ल में व्यत्यय देखा जाता है । ६६।। लोह, लाख, विष, सन, मैन इनका बेचना, दुष्ट जीवोंका पालना और पशुओं पर भार लादना इनको छोड । अनर्थोके समूहमें पडकर संसारको किस प्रकार तरेगा ।।६७।। तीनों संन्ध्याओंमें सामायिक करनेसे बहुत पुण्य उत्पन्न होता हैं । समय पर वर्षा होनेसे यदि धान्य उत्पन्न हो,तो इसमें भ्रांति क्या है ।। ६८ । पर्व के दिन किया गया उपवास चिर कालके किये हुए कर्मोका क्षय करता है । अथवा गर्मी के दिनोंमें सूर्य सरोवरके जल को सुखा देता हैं,इसमें कोई भ्रान्ति नहीं है ।।६९।। हे भव्य जीव, योग्य काल में योग्य विधानके साथ पात्रोंको दान देना चाहिए। क्योंकि विधिसे रहित बोया गया बज कुछ भी फल नहीं देता है ।।७०।। संन्याससे मरण करनेवाले श्रावकोंकौ इच्छित ऋद्धि प्राप्त होती है, इसमें कुछ भी भ्रान्ति न करो। क्योंकि जहाँ साहस होता है, वहाँ पर अवश्य सिद्धि होती है ।।७१।। जो जीव इन बारह व्रतोंका पालन करता हैं, वह देवलोक जाता है, जहाँ पर सहस्र नयत इन्द्र और धरणेन्द्र भी उसकी विभतिका वर्णन करते हैं 1७२।। आयुष के अन्त में स्वर्गसे च्युत होकर उत्तम वंशवाले मनुष्योंमें उत्पन्न होते है और नारायण, बलभद्र एव चक्रवर्तीके सुख भोगकर पुनः तपश्चरण करते है ।७३।। वे भव्य १ म मोक्काालयइं । २ ब टि आशा वांछा एव गतः आशा गजो वा । ३ ब टि. अथवा डलपो स संबमः पाततः । ४ ब टि पेटके समूह ५ झ तारसह । ६ ख उप्पज्जइ बधण्ण । ७ झ-दिणई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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