Book Title: Shravakachar Sangraha Part 1
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 510
________________ सावयधम्म दोहा जई गिहत्थु दाणेण विणु जगि पभणिज्जइ कोइ । ता गित्य पक्खि व हवइ जे' घरु ताह वि होई ॥८७ धम्म करउं जइ होइ धणु इहु दुव्वयणु म बोल्लि । हकारउ जमभडतणउ आवइ अज्जु कि कल्लि | ८८ Jain Education International काई बहुत्तई संपयई जा' किवणह घरि होइ । 'उबहिणीरु खारें भरिउ पाणिउ पियइ ण कोई ।। ८९ पत्तहं दिण्णउ थोवडउ रे जिय हो बहुत । वडहं बोउ धरिणिहि पडिउ वित्थरु लेइ महंतु । . ९० धम्म परिणइ चाउवि पत्तहं दिष्णु । स इयजल सिपिहि गयउ मत्तिउ होइ रवण्णु ॥ ९१ दिज्जइ तं पावियइ एउ ण वयणु विसुध्दु । गाइ पइण्णई खडभुसई कि ण पयच्छइ दुध्दु ॥ ९२ जो घरि हुतई धण कणइ मुणिहि कुभोयणु देइ । जम्मि जम्मि दालिद्दडउ पुट्ठि ण त छंडे ||३ कह भोयण सहं भिट्टडी दिण्णु कुभोयणु जेण । हुतई घरि परि वविय बबूल इं तेण । ९४ 9 जय दिज्ज इत्थु भवि तं लब्इ परलोइ । मूलें सिंचाइ तरुबरहं फलु डार्लाहि पुणु होइ ॥ ९५ पत्तहं दाणई दिण्णइण मिच्छदिट्ठि वि जति उतमाई भोघावहि इच्छिउ भोउ लहंति ॥९६ कम्ण खत्तिय सेव जहिं ण उ वाणिज्जग्यासु । घरिघरि दस विह' कप्पयर ते पूहि अहिलासु ।। fift दे ण धम्मतरु दाण-सलिल-सिचंतु । जइ मिच्छत हुयासगहु रक्खिज्जइ डज्झतु ||९८ धम्मु करतहं होइ धणु इत्यु ण कायउ भंति । जलु कड्ढतहं कूवयहं अवसई सिरउ वहति ९९ है, इनमें भ्रान्ति नहीं है । कहीं पत्थरोंकी नाव पत्थरको पार उतारती देखी गई है || ८६ ॥ | यदि दान के बिना भी जगत् में कोई मनुष्य गृहस्थ कहा जाय तब तो पक्षी भी गृहस्थ हो जाता है, क्योंकि घोंसलारून घर तो उसके भी होता है ॥ ८७ । 'यदि धन हो जाय तो धर्म करूँ, ऐसा दुर्वचन मत बोल | क्योंकि यमराजके दूतका हकारा आज आ जाय कि काल, इसका क्या भरोसा है ॥ ८८ ॥ उस बहुत सम्पत्ति से क्या लाभ, जो कृपणके घरमें होती है। समुद्र खारे पानी से भरा है, उसका कोई पानी नहीं पीता है । ८९|| हे जो, पात्र को दिया गया थोडा सा भी दान बहुत होता है । MAT बीज भूमि में पडकर भारी विस्तार ले लेता है ॥ ९० ॥ पात्रको दिया हुआ दान धर्मस्वरूपसे परिणत होता है । देखो स्वाति नक्षत्रका जल सोपमं जाकर रमणीक मोती बन जाता है ।। ९१ ॥ 'जो दिया जाता है, वही प्राप्त होता है' यह वचन विशुद्ध ( यथार्थ ) नहीं है । देखो - गायको खल और भुस दिया जाता है, तो क्या वह दूध नहीं देती है ||१२|| जो मनुष्य घर में धन-धान्यके होते हुए भी मनिको कुमोजन देता है, दारिद्र्य जन्म-जन्म में उसका पीछा नहीं छोडता है ।। ९३ ।। जिसने मुनियोंको भोजन दिया है, उसे उत्तम भोजनसे भेट कहाँ हो सकती है ! घरमें प्रचुर बीजोंके होते हुए उबल बोवे है ।। ९४ ।। हे जीव, जो कुछ इस भव में दिया जाता है, वहीं परलोक में प्राप्त होता है। वृक्षके मूलको सींचनेपर ही डालियों में फल लगते है । ९५ ।। पात्रोंको दान देनसे मिथ्यादृष्टि भी उत्तमभोगभूमिको जाते है और इच्छित भोगोंको पाते है ||२६|| जिस भोगभूमि में खेती और न सेवाकार्य है और न व्यापारका प्रयास ही है । वहांपर घर-घर में दस प्रकार के कैल्प - वृक्ष हैं, वे जीवोंकी सब अभिलाषाओं को पूरा करते है । ९७॥ दानरूपी जलसे सींचा गया धर्मरूपी वृक्ष क्या क्या सुफल नहीं देता है? यदि मिथ्यात्वरूप अग्निके द्वारा उसकी जलने से रक्षा की जाय ||१८|| धर्म करनेवालोंके धन होता है, इसमें कोई भी भ्रान्ति नहीं है । जैसे कूपसे जलके निकलने ६ म दस १ झ जह। २ ५ ज३ ३ झ सायर | ४ बसिहु । कप्पयर गहिं । ७ काइमि । ८ म घडति । ५ यह दोह 'झ' प्रतिमे नहीं है ४९१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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