Book Title: Shravakachar Sangraha Part 1
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 487
________________ ४६८ श्रावकाचार-संग्रह रति जग्गिज्ज' पुणो तिसट्टि सलायपुरिससुकहाहि । संघेण समं पुज्जं पुणो वि कुज्जा पहायम्मि ॥ एवं चत्तारि विणाणि जाव कुज्जा तिसंझ जिणपूजा। नेत्तुम्मीलणपुज्जं चउत्थण्हवणं तओ कुज्जा ।। ४२३ एवं ण्हवणं काऊण सत्थमग्गेण संघमज्झम्मि।तो वक्खमाणविहिणा जिणपयपूया य कायव्या॥४२४ गहिऊण सिसिरकर-किरण-णियर-धवलयर-रययभिंगारं। मोत्तिय-पवाल-मरगय-सुवण्ण-मणि-खचिय'वरकंठं ॥ ४२५ सयवत्त-कुसुम कुवलय-रपिंजर-सुरहि-विमल-जलभरियं । जिणचरण-कमलपुरओ खिविज्जि ओ तिष्णि धाराओ॥ ४२६ कप्पूर-कुंकुमायरु-तुरुक्कमीसेण चंदणरसेण । वरवहलपरिमलामोयवासियासासाहेण ॥ ४२७ वासाणुमग्गसंपत्तमुइयमत्तालिरावमुहलेण । सुरमउडघिट्टचलण"भत्तीए समलहिज्ज जिणं । ४२८ ससिकतखंडविमलेहि विमलजलसित्त अइ सुयंधेहिाजिणपडिमपइट्ठयज्जिविसुद्धपुण्णंकुरेहिं व ४२९ वर कमल-सालितंडुलचएहि । सुछंडिय" दीहसयलेहि । मणुय-सुरासुरमहियं पुज्जिज्ज जिणिदपयजुयलं ॥ ४३० अर्थात् पूजार्थ निर्मित अगरबत्तियोंसे, जावारकोंसे, सिद्धार्थ ( सरसों ) और पर्ण वृक्षोंसे तथा पूर्वोक्त उपकरणोंसे पूर्ण वैभवके साथ या अपनी शक्तिके अनुसार पूजा रचे ।।४११-४२१।। पुनः संघके साथ तिरेसठ शलाका पुरुषोंकी सुकथालापोंसे रात्रिको जगे अर्थात् रात्रि जागरण करे और फिर प्रातःकाल संघके साथ पूजन करे ॥४२२।।इस प्रकार चार दिन तक तीनों संध्याओंमें जिनपूजन करे । तत्पश्चात् नेत्रोन्मीलन पूजन और चतुर्थ अभिषेक करे ।। ४२३ ।। इस प्रकार शास्त्र के अनुसार संघके मध्यमें जिनाभिषेक करके आगे कही जानेवाली विधिसे जिनेन्द्र भगवान्के चरण-कमलोंकी पूजा करना चाहिये ।।४२४।। मोती, प्रवाल, मरकत, सुवर्ण और मणियोंसे जटित श्रेष्ठ कण्ठवाले, शतपत्र (रक्त कमल) कुसुम, और कुवलय (नील कमल) के परागसे पिंजरित एवं सुरभित विमल जलसे भरे हुए शिशिरकर ( चन्द्रमा) की किरणों के समूहसे भी अति धवल रजत ( चाँदी ) के भृङ्गार ( झारी ) को लेकर जिनभगवानके चरणकमलोंके सामने तीन धाराएँ छोडना चाहिए ।।४२५-४२६।। कपूर, कुंकुम, अगर, तगरसे मिश्रित, सर्वश्रेष्ठ विपुल परिमल ( सुगन्ध ) के आमोदसे आशासमूह अर्थात् दशों दिशाओंको आवासित करनेवाले और सुगन्धिके मार्गके अनुकरणसे आये हुए प्रमुदित एवं मत्त भ्रमरोंके शब्दोंसे मुखरित, चंदनरसके द्वारा, (निरन्तर नमस्कार किये जानेके कारण ) सुरोंके मुकुटोंसे जिनके चरण घिस गये हैं, ऐसे श्रीजिनेन्द्रको भक्तिसे विलेपन करे ।। ४२७-४२८ ॥ चन्द्रकान्तामणिके खंड समान निर्मल, तथा विमल ( स्वच्छ ) जलसे धोये हुए और अतिसुगंधित, मानों जिनप्रतिमाकी प्रतिष्ठासे उपार्जन किये गये विशुद्ध पुण्यके अंकुर ही हों, ऐसे अखंड और लम्बे उत्तम कलमी और शालिधान्यसे उत्पन्न तन्दुलोंके समूहसे, मनुष्य सुर और असुरों के द्वारा पूजित श्रीजिनेन्द्रके चरण १ ब. जग्गेज्ज । प. जगोज । २ ब. तेसठि । ३ ब. खविय । ४ ध. प. कमल । ५ म. चरणं । ६ झ. मिउ । ७ ब. सुछडिय।। * विदध्यात्तन गन्धेन चामीकर शलाकया । चक्षुरुन्मीलनं शक्रः पूरकेन शुभोदये ।। ४१८ ।। -वसुबिन्दुप्रतिष्ठापाठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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