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श्रावकाचार-संग्रह
अट्ठदलकमलमज्झे झा एज्ज नहं दुरेहबिदुजयं । सिरिपंचणमोक्का रेहिं वलइयं पत्तरेहासु' । ४७० णिसिऊण णमो अरिहंताणं पत्ताहमवग्गह।
४७४
भणिऊण वेढिऊण य मायाबीएण तं तिउणं ।। ४७१ ( २ ) आयास-फलिह मंणिह तणुप्पहासलिलणिहिणिब्बुडतं । णर सुरतिरीडमणिकिरणसमूह रंजियपथंबुरुहो । ४७२
वरअट्टपा डिहेरे हि परिउट्टो समवसरणमज्झगओ परमप्पाणंतच उट्टयण्णिओ पवणमग्गट्टो । ४७३ (२) एरिसओ च्चिय परिवारवज्जिओ खीरजलहिमज्झे वा । वरखोर वण्णकंदुस्थ' कण्णियामज्झदेसट्टो || area हिसलिलधारा हिसेयधवलीकयंगसव्वंगो । जं झा इज्जइ इवं रूवत्थं जाण तं झाणं | ४७५ (३) रुपातीत ध्यान
वण्ण-रस-गंध-फार्सोहि वज्जिओ णाण-दसणसरूवो । जं झाइज्जइ एवं तं झाणं रूवर हियं ति ॥ ४७६ (४)
द, ज्ञानका ज्ञा, चारित्रका चा और तपका त इन अक्षरोंको क्रमशः स्थापित करके इस प्रकार के अष्ट दलवाले कमलका शिर, मुख, कण्ठ, हृदय और नाभिप्रदेश, इन पाँच स्थानोंमें ध्यान करना चाहिए । अथवा प्रथम कमलको ललाट देश में, द्वितीय कमलको विशुद्धदेश अर्थात् मस्तकपर और शेष कमलोंको दक्षिण आदि दिशाओं में स्थापित करके उनका ध्यान करना चाहिए ||४६७-४६९॥ अष्ट दलवाले कमलके भीतर कणिकामें दो रेफ और बिन्दुसे युक्त हकारके अर्थात् 'हैं' पदको स्थापन करके कणिकाके बाहर पत्ररेखाओंपर पंच णमोकार पदोंके द्वारा वलय बनाकर उनमें क्रमशः ' णमो अरहंताणं' आदि पाँचों पदोंको स्थापित करके और आठों पत्रोंको आठ वर्णोंके द्वारा चित्रित करके पुनः उसे मायाबीजके द्वारा तीन बार वेष्टित करके उसका ध्यान करे । ४७०-४७१। आकाश और स्फटिकमणिके समान स्वच्छ एवं निर्मल अपने शरीरकी प्रभारूपी सलिलनिधि (समुद्र) में निमग्न, मनुष्य और देवोंके मुकुटों में लगी हुई मणियोंकी किरणोंके समूहसे अनुरजित है चरण कमल जिनके ऐसे, तथा श्रेष्ठ आठ महाप्रातिहार्योंसे परिवृत, समवसरणके मध्य में स्थित, परम अनन्त चतुष्टयसे समन्वित, पवनमार्गस्थ अर्थात् आकाशमें स्थित, अरहन्त भगवान्का जो ध्यान किया जाता हैं, वह रूपस्थ ध्यान हैं । अथबा ऐसे ही अर्थात् उपर्युक्त सर्व शोभासे समन्वित किन्तु समवसरणादि परिवारसे रहित, और क्षीरसागरके मध्य में स्थित, अथवा उत्तम क्षीरके समान धवल वर्णके कमलकी कर्णिकाके मध्यदेश में स्थित, क्षीरसागरके जलकी धाराओंके अभिषेकसे धवल हो रहा है सर्वाग जिनका ऐसे अरहन्त परमेष्ठीका जो ध्यान किया जाता है, उसे रूपस्थ ध्यान जानना चाहिए ।।४७२-४७५।।
१ ब. रेहेसु । २ ब. खंदुट्ट |
(१) मध्येऽष्टपत्र पद्मस्य खं द्विरेफं सबिन्दुकम् । स्वरपंचपदावेष्ट्यं विन्यस्यास्य दलेषु तु ।।२३८ । भूत्वा वर्गाष्टक पत्र प्रान्ते न्यस्यादिमं पदम् । मायाबीजेन संवेष्टयं ध्येयमेतत्सुशर्मदम् । २३९ । (२) आकाशस्फटिकाभासः प्रातिहार्याष्टकात्वितः । सर्वामरैः सुसंसेव्योऽप्यनन्तगुणलक्षितः ॥ २४०॥ वोक्तेन वर्जितः क्षीरनीरधीः । मध्ये शशांकसकाशनीरे जातस्थितो जिनः ।। २४१ ||
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- गुण. श्री. (३) क्षीराम्भोधिः क्षीरधाराशुभ्राशेषाङगसङगमः । एवं यच्चिन्त्यते तत्स्याद् ध्यानं रूपस्थनामकम्।। (४) गन्धवर्णं रसस्पर्श वर्जितं बोधदृङमयम् । यच्चिन्त्यतेऽर्हद्रूपं तद्ध्यानं रूपवर्जितम् ॥२४३॥
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