Book Title: Shravakachar Sangraha Part 1
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 500
________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४८१ जं कि पि सोखसारं तिसु वि लोएस मणुय-देवाणं । तमणंतगुणं पि ण एयसमयसिद्धाणुभूयसोक्खसम ।।५३८ सिज्झइ तइयम्मि भवे पंचमए कोवि सत्तमठ्ठमए। भुंजिवि पुर-मणय मुहं पावेइ कमेण सिद्धपयं ।। लघुत्व और अव्याबाधत्व, ये सिद्धोंके आठ गुण वर्णन किये गये हैं ।।५३७॥ तीनों ही लोकोंमें मनुष्य और देवोंके जो कुछ भी उत्तम सुखका सार हैं, वह अनन्तगुणा हो करके भी एक समयमें सिद्धोंके अनुभव किये गये सुखके समान नहीं है ।।५३८ । (उत्तम रीतिसे श्रावकोंका आचार पालन करनेवाला कोई गृहस्थ ) तीसरे भव में सिद्ध होता है, कोई क्रमसे देव और मनुष्यों के सुखको भोगकर पाँचवें, सातवें या आठवें भव में सिद्ध पदको प्राप्त करते है ।।५३९।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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