Book Title: Shravakachar Sangraha Part 1
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 492
________________ वसुनन्दि-श्रावकाचारः ४७३ पदस्थ-ध्यान जं झाइज्जइ उच्चारिऊण परमेछिमंत ग्यममलं। एयवखरादि विविहं पयस्थझाणं मणेयव्वं ।।४६४ (१) सुण्णं अयारपुरओ झाइज्जो उड्ढरेह-बिंदुजुयं । पावंधयारमहणं समंतओ फुरियसियतेयं ।।४६५ (२) अ सि आ उ सा सुवण्णा झायव्वा तसत्तिसपण्णा। चउपत्तकमलमज्झे पढमाइकमेण णिविसिऊणं ॥४६६ (३) ते चिय वण्णा अट्टदल पंचकमलाण माझदेसेसु । णिसिऊण सेसपर मेट्टि अक्खरा चउसु पत्तेसु ॥४६७ रयणत्तय तव-पडिमा-वण्णा णिविसिऊण सेसपत्तेसु। सिर-वयण-कंठ-हियए णाहिपएसम्मि शायव्वा ।।४६८ अहवा णिलाडदेसे पढमं बीयं विसुद्धदेसम्मि । दाहिणदिसाइ णिविसिऊण सेसकमलाणि झाएज्जो ॥४६९ (४) पंच परमेष्ठीवाचक पवित्र मंत्रपदोंका उच्चारण करके जो ध्यान किया जाता हैं, उसे पदस्थ ध्यान जानना चाहिए ॥४६४|| विशेषार्थ- ओं यह एक अक्षरका मन्त्र है । अर्ह, सिद्ध ये दो अक्षरके मन्त्र है । ओं नमः यह तीन अक्षरका मन्त्र हैं। अरहंत, अहं नमः, यह चार अक्षरका मन्त्र हैं। अ सि आ उ सा यह पाँच अक्षरका मन्त्र है। ओं नमः सिद्धेभ्यः यह छह अक्षरका मन्त्र है। इसी प्रकार ओ व्हीं नमः, ओं ण्हीं अहं नमः, ओंण्हीं श्रीं अहं नमः, अर्हन्त, सिद्ध, अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसाधुभ्यो नमः इत्यादि पंचपरमेष्ठी या जिन. तीर्थकर वाचक नामपदोंका ध्यान पदस्थ ध्यानके ही अन्तर्गत है। पापरूपी अन्धकारका नाश करनेवाला और चारों ओरसे सूर्य के समान स्फुरायमान शुक्ल तेजवाला ऐसा तथा ऊर्ध्वरेफ और बिन्दुसे युक्त अकारपूर्वक, हक रका, अर्थात् अहं इस मन्त्र का ध्यान करे । ४६५।। चार पत्रवाले कमलके भीतर प्रथमादि क्रमसे अनन्त शक्ति-सम्पन्न अ. सि, आ,उ, सा इन सुवर्णोंको स्थापितकर ध्यान करना चाहिए। अर्थात् कमलके मध्यभागस्थ कणिकामें अं (अरहत) को, पूर्व दिशाके पत्रपर सि (सिद्ध) को, दक्षिण दिशाके पत्रपर आ (आचार्य) को, पश्चिम दिशाके पत्रपर उ (उपाध्याय) को और उत्तर दिशाके पत्रपर सा (साधु ) को स्थापित कर उनका ध्यान करे ।।४६६।। पुन: अष्टदलवाले कमलके मध्यदेशमें दिशासम्बन्धा चार पत्रोंपर उन्हीं वर्णोंको स्थापित करके, अथवा पंचपरसेष्ठीके बाचक अन्य अक्षरोंको स्थापित करके तथा विदिशा सम्बन्धी शेष चार पत्रोंपर रत्नत्रय और तपवाचक पदोंके प्रथम वर्णोंको अर्थात् दर्शनका १) एकाक्षर, दिकं मत्रमुच्चार्य पामेष्ठिनाम् । क्रमस्य चिन्तनं यतत्पदस्थध्यानसंज्ञकम् ।।२३२।। (२) अकारपूर्वक शून्य रेफानुस्वारपूर्वकम् । पापान्धकारनिर्गाशं ध्यातव्यं तु सितप्रभम् ॥२३३।। ( ३) चतुर्दलस्य पद्मस्य कणि कायंत्रमन्तरम् । पूर्वादिदिक्क्रमान्न्यस्य पदाद्यक्षरपंचकम् ।।२३४॥ -गण. श्राव. (४) तच्चाष्टपत्र रद्मानां तदेवाक्षरपंचकम् । पूर्ववन्यस्य दृग्ज्ञानचारित्रतपसामपि ।।२३५।। विदिक्ष्वाद्यक्षर न्यस्य ध्यायेन्मूनि गले हृदि । नाभौ वक्त्रेऽथवा पूर्व ललाटे मूर्टिन वापरम् ।। चत्वारि यानि पद्मानि द क्षणादिदिशास्वपि । विन्यस्य चिन्तयेन्नित्यं पापनाशनहेतवः ।२३७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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