Book Title: Shravakachar Sangraha Part 1
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 497
________________ श्रावकाचार - संग्रह इच्चाइ बहुविणोएहि तत्थ विषेऊण सगठिई तत्तो । उव्वट्टिओ समाणो चक्कहराई जाएइ । । ५०९ भोत्तूण मणुयसोक्खं पस्सिय वेरगकारणं किं चि । मोत्तूण रायलच्छी तणं व गहिऊण चारितं ॥ काऊण तवं घोरं लद्धीओ तष्फलेण लवण । अट्टगुणे ' सरियत्तं च किं ण जिज्झइं तवेण जए || ५११ बुद्धि तवो विय लद्धी विउव्त्रणलद्धी तहेव ओसहिया । रस-बल- अक्खीणा वि य रिद्धीओ सत्त पण्णत्ता ।।५१२ ४७८ अणिमा महिमा लघिमा वागम्म वसित्त कामरूवित्तं । ईसत पावणं तह अट्ठगुणा वष्णिया समए ॥ एवं काऊण तवं पासुयठाणम्मि तह य गंतून पलियंक बंधित्ता काउस्सग्गेण वा ठिच्चा ।। ५१४ जइ खाइयसद्दिट्ठी पुव्वं खविघाउ सत्त पयडीओ । सुरणिरय-लिरिक्खाऊ तहि भवे णिट्टियं चैव । अह बेगसद्दिकी पत्तठाणम्मि अप्पमत्ते वा । सरिऊन धम्मझाणं सत्त वि जिट्टवइ पयडीओ ॥ ५१६ काऊ पत्तेयरपरियत्त 'सयाणि खवयपाउग्गो । होऊण अप्पमत्तों विसोहिमाऊरिऊण खणं । ५१७ करणं अधापवत्तं पढमं पडिवज्जिऊण सुक्कं च । जायइ अनुव्त्रकरणो कसायखवणुज्जओ' वीरो || एक्क्कं ठिदिखंडं पाडइ अंतोमुहुत्तकालेण । ठिदिखंड 'पडणकाले अणुभागस्याणि पाडे ॥ ५१९ करता है । इसी प्रकार पाँचों मेरुवर्वतोंपर, विमानोंके जिन चैत्यालयों में, और अनेकों पंच कल्याणकों में नाना प्रकारकी पूजा करता है। इस प्रकार इन पुण्य वर्धक और आनन्दकारक नाना बिनोदोंके द्वारा स्वर्ग में अपनी स्थितिको पूरी करके वहाँसे च्युत होता हुआ वह देव मनुष्यलोक में चक्रवर्ती आदिकोंमें उत्पन्न होता हैं ।। ५०७ - ५०९ ।। मनुष्य लोक में मनुष्यों के सुखको भोगकर और कुछ वैराग्यका कारण देखकर, राज्यलक्ष्मीको तृणके समान छोडकर, चारित्रको ग्रहण कर, घोर तपको करके और तपके फलसे विक्रियादि लब्धियों को प्राप्त कर अणिमादि आठ गुणों के ऐश्वर्यको प्राप्त होता हैं । जगमें तपसे क्या नहीं सिद्ध होता ? सभी कुछ सिद्ध होता है । ५१०- ५११।। बुद्धिऋद्धि, तपऋद्धि, विक्रियाऋद्धि, औषधऋद्धि, रसऋद्धि, बलऋद्धि और अक्षीण महानस ऋद्धिइस प्रकार ये सात ऋद्धियाँ कही गई है ॥५१२|| अणिमा, महिमा, लघिमा, प्राकाम्य, वशित्व, कामरूपित्व, ईशत्व, और प्राप्यत्व, ये आठ गुण परमागम में कहे गये है ।। ५१३।। इस प्रकार वह मुनि तपश्चरण करके, तथा प्रासुक स्थानमें जाकर और पर्यंकासन बाँधकर अथवा कायोत्सर्ग स्थित होकर, यदि वह क्षायिक सम्यग्दृष्टि हैं, तो उसने पहले ही अनन्तानुबन्धी- चतुष्क और दर्शनमोहत्रिक, इन सात प्रकृतियों का क्षय कर दिया है, अतएव देवायु, नारकायु और तिर्यगायु इन तीनों प्रकृतियोंको उसी भवमें नष्ट अर्थात् सत्त्व-व्युच्छिन्न कर चुका है। और यदि वह वेदक, सम्यग्दृष्टि हैं, तो प्रमत्त गुणस्थान में, अथवा अप्रमत्त गुणस्थान में धर्मध्यानका आश्रय करके उक्त सातों ही प्रकृतियों का नाश करता हैं । पुनः प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थान में सैकड़ों परिवर्तनों को करके, क्षपक श्रेणिके प्रायोग्य सातिशय अप्रमत्त संयत क्षणमात्र में विशोधिको आपूरित करके और प्रथम अधःप्रवृत्तकरणको और शुक्लध्यानको प्राप्त होकर कषायों के क्षपण करने के लिए उद्यत वह वीर अपूर्वकरण संयत हो जाता है ।।५१४ - ५१८।। अपूर्वकरण गुणस्थान में वह अन्तर्मुहूर्तकाल - के द्वारा एक स्थितिखंडको गिराता हैं । एक स्थितिखंडके पतनकाल में सैकडों अनुभागखण्डों का पतन करता हैं । इस प्रकार प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता हुआ अनिवृत्तिकरण १ झ ध. प. गुणी । २झ सब्भुं । ध प सज्यं ( साध्यमित्यर्थः) । ३ ध प परियत । ४ इ. ध. जिओ । ५ ब. कंडं । ६ ब कंड | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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