Book Title: Shravakachar Sangraha Part 1
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 486
________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४६७ तप्पाओग्गुवयरणं अप्पसमीवं णिविसिऊण तओ । आगरसुद्धि कुज्जा पइट्ठसत्युत्तमग्गेण ।। ४१० एवं काऊण तओ खुहियसमुद्दोव्व गज्जमाणेहिं । वरभेरि-करड-काहल-जय-घंटा-संख-णिवहेहिं ४११ गुलगुलगुलंत तविलेहि कंसतालेहि झमझमंतेहि। घुम्मंत पडह-मद्दल' हुडुक्कमुखेहि विविहेहि ४१२ गिज्जत संधिबंधाइएहि गेएहि बहुपयारेहि । वीणावंसेहि तहा आणयसहि रम्नेहिं । ४१३ बहुहाव-भाव-विन्भम-विलास-कर-चरण-तणुवियारेहिं । णच्चंत णवरसुब्मिण्ण-णाडएहि विविहेहिं ।। ४१४ थोत्तेहि मंगलेहि य उच्चाहसएहि महुरवयणस्स धम्माणुरायरत्तस्स चाउवण्णस्स संघस्स ।। ४१५ भत्तीए पिच्छमाणस्स तओ उच्चाइऊण जिणपडिमं । उस्सिय सियायवत्तं सियचामरधन्वमाण सव्वंगं ।। ४१६ आरोविऊण सीसे काऊण पयाहिणं जिणगेहस्स। विहिणा ठविज्ज पुवुत्तवेइयामज्मपीठम्मि॥४१७ चिट्ठज्ज-जिणगणारोवणं कुणंतोििणदपडिबिवे।इविलग्गस्सदए चंदणतिलयं तओ दिज्जा ४१८ सव्वावयवेसु पुणो मंतण्णासं कुणिज्ज पडिमाए। विविहचणं च कुज्जा कुसुमेहि बहुप्पयारेहिं ४१९ दाऊण महपडं धवलवत्थजुयलेण मयणफलसहियं ।। ___अक्खय-चरु-दोवेहिं य धूवेहि फलेहि विविहेहि ॥ ४२० बलिवत्तिएहिं जावारएहि य सिद्धत्थपण्णरुखैहि पुव्वुत्तुवयरणेहि य रएज्ज पुज्जं सविहवेण ४२१ योग्य उपकरणोंको अपने समीप रखकर प्रतिष्ठाशास्त्र में कहे हुए मार्गके अनुसार आकर शुद्धिको करे । (आकरशुद्धिके विशेष स्वरूपको जानने के लिए परिशिष्ठ देखिए) ।।४१०। इस प्रकार आकारशुद्धि करके पुन: क्षोभित हूए समुद्र के समान गर्जना करते हुए उत्तमोत्तम भेरी करड, काहल, जयजयकार शब्द, घण्टा और शंखोंके समूहोंसे गुल-गुल शब्द करते हुए तबलोंसे, झम-झम शब्द करते हुए कंसतालोंसे, घुम-घुम शब्द करते हुए नाना प्रकारके ढोल, मृदंग, हुडुक्क आदि मुख्य-मुख्य बाजोंसे, सुर-आलाप करते हुए संधिबंधादिकोंसे अर्थात् सारंगी आदिसे, और नाना प्रकारके गीतोंसे, सरम्य वीणा. बाँसरीसे तथा सन्दर आणक अर्थात वाद्यविशेषके शब्द प्रकारके हाव, भाव, विभ्रम, विलास तथा हाथ, पैर और शरीरके विकारोंसे अर्थात् विविध नृत्योंसे नाचते हुए नौ रसोको प्रकट करनेवाले नाना नाटकोंसे, स्तोत्रोंसे, मांगलिक शब्दोंस, तथा उत्साहशतोंसे अर्थात् परम उत्साहके साथ मधुरभाषी, धर्मानुराग-रक्त और भक्तिसे उत्सवको देखनेवाले चातुर्वर्ण संघके सामने, जिसके ऊपर श्वेत आतपत्र (छत्र) तना है, और श्वेत चामरोंके ढोरनेसे व्याप्त है सर्व अंग जिसका, ऐसी जिनप्रतिमाको वह प्रतिष्ठाचार्य अपने मस्तकपर रखकर और जिनेन्द्रगृहकी प्रदक्षिणा करके, पूर्वोक्त वेदिकाके मध्य-स्थित सिंहासनवर विधिपूर्वक प्रतिमाको स्थापित कर, जिनेन्द्र-प्रतिबिम्ब अर्थात् जिन-प्रतिमाम जिन-भगवान्के गुणोंका आरोपण करता हुआ, पुनः इष्ट लग्नके उदयमें अर्थात् शुभ मुहुर्तमें प्रतिमाके चन्दनका तिलक लगावे । पुनः प्रतिमाके सर्व अंगोपांगोंमें मंत्रन्यास करे और विविध प्रकारके पुष्पोंसे नाना पूजनोंको करे । तत्पश्चात् मदनफल ( मैनफल या मैनार ) सहित धवल वस्त्र-युगलसे प्रतिमाके मुखपट देकर अर्थात् वस्त्रसे मुखको आवृत कर, अक्षत, चरु, दीपसे, विविध धूप फलोंसे, बलि-वत्तिकोंसे १ ब. मद्दल २ इ. गएहिं ब. गोएहि । ३ ड. उब्भिय । ४ इ, दोलिमाण० । ५ म. जुवारेहि । ६ ध. प. परए। सेनाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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