Book Title: Shravakachar Sangraha Part 1
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 489
________________ ४७० श्रावकाचार-संग्रह पूईफल - तिदु- आमलय- जंबु - विल्लाइ सुरहिमिट्टेहिं । जिणपयपुरओ रयणं फलेहि कुज्जा सुपवकेहि ॥ अविमंगलाणि य बहुबिहपूजोवयरणदव्वाणि । धूवदहणाइ' तहा जिणपूयत्थं वितीरिज्जा ||४४२ एवं चलडिमाए ठवणा भणिया थिराए एमेव । वरिविसेसो आगरसुद्धि कुज्जा सुठाणम्मि ||४४३ चित्तपडिलेवपडिमाए दप्पणं दाविऊण पडिबिबे' । तिलयं दाऊण मुहवत्थं दिज्ज पडिमाए । आगरसुद्धि च करेज्ज दप्यणे अह व अण्णंपडिमाए । एत्तियमेत्तविसेसो सेसविही जाण पुष्वं व ॥ ४४५ एवं चिरंतणाणं पि कट्टिमाकट्टिमाण परिमाणं । जं कीरइ बहुमाणं ठवणापुज्जं हि तं जाण । ४४६ जे पुत्रसमुद्दिट्ठा ठेवणापूयाए पंच अहियारा । चत्तारि तेसु भणिया अवसाणे पंचमं मनिओ || ४४७ I द्रव्य - पूजा - दव्वेण य दव्वस्स य जा पूजा जाण दव्वपूजा सा । दव्वेण गंध-सलिलाइ पुग्वभणिएण कायव्वा ।। (५) तिविहा दव्वे पूजा सचित्ताचित्तमिस्स भएन । पञ्चवख जिणाईणं सचित्तपूजा' जहाजोग्गं ॥। ४४९ तेन्दु, आंवला, जामुन, विल्वफल आदि अनेक प्रकारके सुगंधित, मिष्ट और सुपक्व फलोंसे जिनचरणोंके आगे रचना करे अर्थात् पूजन करे ||४४० - ४४१ ।। आठ प्रकार के मंगल-द्रव्य और अनेक प्रकारके पूजाके उपकरण द्रव्य, तथा धूप- दहन ( धूपायन) आदि जिन-पूजन के लिए वितरण करे । ४४२।। इस प्रकार चलप्रतिमाकी स्थापना कही गई है, स्थिर या अचल प्रतिमाकी स्थापना भी इसी प्रकार की जाती हैं। केवल इतनी विशेषता हैं कि आकरशुद्धि म्वरस्थान में ही करे । ( भित्ति या विशाल पाषाण और पर्वत आदिपर) चित्रित् अर्थात् उकेरी गई, प्रतिलेपित अर्थात् रंग आदि बनाई या छापी गई प्रतिमाका दर्पण में प्रतिबिम्ब दिखाकर और मस्तकपर तिलक देकर तत्पश्चात् प्रतिमा के मुखवस्त्र देवे । आकरशुद्धि दर्पण में करे अथवा अन्य प्रतिमामें करे । इतना मात्र ही भेद हैं, अन्य नहीं । शेष विधि पूर्वके समान ही जानना चाहिये ||४४३ - ४४५॥ इसी प्रकार चिरन्तन अर्थात् पुरातन कृत्रिम और अकृत्रिम प्रतिमाओंका भी जो बहुत सम्मान किया जाता हैं, अर्थात् पुरानी प्रतिमाओंका जीर्णोद्धार, अविनय आदिसे रक्षण, मेला, उत्सव आदि किया जाता है, वह सब स्थापना पूजा जानना चाहिए || ४४६ ॥ स्थापना - पूजाके जो पाँच अधिकार पहले (गाथा नं. ३८९ में ) कहे थे उनमेंसे आदिके चार अधिकार तो कह दिये गये है, अवशिष्ट एक पूजाफल नामका जो पंचम अधिकार है उसे इस पूजन अधिकार के अन्त में कहेंगे ।।४४७।। जलादि द्रव्यसे प्रतिमादि द्रव्यकी जो पूजा की जाती है, उसे द्रव्य पूजा जानना चाहिए। वह द्रव्यसे अर्थात् जल-गंध आदि पूर्व में कहे गये पदार्थ समूहसे ( पूजन-सामग्री मे ) करना चाहिए । ४४८ ।। द्रव्य - पूजा, सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेदसे तीन प्रकारकी हैं। प्रत्यक्ष उपस्थित जिनेन्द्र भगवान् और गुरु आदिका यथायोग्य पूजन करना सो सचित्तपूजा है । उनके अर्थात् जिन, १ झ. ब. भूयाणाईहि । २ झ. ब. बिंबो । ४ ब. ध. पुज्जा । (१) जलगंधादि कैर्द्रव्यैः पूजनं द्रव्यपूजनम् । दव्यस्याप्यथवा पूजा सा तु द्रव्याचंना मता ।। २१९ ।। - गुण. श्री. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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