Book Title: Shravakachar Sangraha Part 1
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 479
________________ ४६० श्रावकाचार-संग्रह गुणपरिणामो जायइ जिणिंद-आणा य पालिया होइ । जिणसमय-तिलयभूओ लगभइ अयतो वि गुणरासी ॥ ३४३ भमइ जए जसकित्ती सज्जणसुइ-हियय-णयण-सुहजणणी। अण्णेवि य होति गणा विज्जावच्चेण इहलोए ॥ ३४४ (१) परलोए वि सरूवो चिराउसो रोय-सोय-परिहीणो। बल-तेय-सत्तजत्तो जायइ अखिलप्पयाओ वा ।। ३४५ जल्लोसहि-सव्वोसहि-अक्खीणमहाणसाइरिद्धीओ । अणिमाइगुणा य तहा विज्जावच्चेण पाउणइ॥ कि जंपिएण-बहणा तिलोहसंखाहकारयमहतं । तित्थयरणामपुण्णं विज्जावच्चेण अज्जेइ ॥ ३४७ तरुणियण-णयण-मणहारिरूव-बल-तेय-सत्तसंपण्णोजाओ विज्जावच्चं पुवं काऊण वसुदेवो॥३४८ वारवईए' विज्जाविच्चं किच्चा असंजदेणावि । तित्थयरणामपुण्णं समज्जियं वासुदेवेण ॥ ३४९ एवं गाउण फलं विज्जावच्चस्स परमभत्तीए । णिच्छयजुत्तेण सया कायव्वं देसविरएण ।। ३५० जब रोग आदिसे पीडित होकर अपने व्रत, संयम आदिके पालने में असमर्थ हो जाते हैं, यहाँ तक कि पीडाकी उग्रतासे उनकी गति, मति आदि भी भ्रष्ट होने लगती है और वे मतप्राय हो जाते हैं, उस समय सावधानीके साथ की गई वैयावृत्ति उनके लिए संजीवनी वटीका काम करती है, वे मरनेसे बच जाते हैं, गति, मति यथापूर्व हो जाती है और वे पूनः अपने व्रत, तप, संयम आदिकी साधनाके योग्य हो जाते हैं, इसलिए ग्रन्थकारने यह ठीक ही कहा है कि जो वैयावृत्त्य करता है, वह रोगी साधु आदिको अभयदान, व्रत-संयम-समाधान और गति-मति प्रदान करता है, यहाँ तक कि वह जीवन-दान तक देता है और इस प्रकार वैयावृत्त्य करनेवाला सातिशय अक्षय पुण्यका भागी होता है । वैयावृत्त्य करनेसे गुण-परिणमन होता है, अर्थात् नवीन सद्गुणोंका प्रादुर्भाव और विकास होता है, जिनेन्द्र-आज्ञाका परिपालन होता है, और अयत्न अर्थात् प्रयत्नके बिना भी गुणोंका समूह प्राप्त होता है तथा वह जिन-शासनका तिलकभूत प्रभावक व्यक्ति होता है ।। ३४३ ।। सज्जन पुरुषों के श्रोत्र, नयन और हृदयको सुख देनेवाली उसकी यश कीति जगमें फैलती है, तथा अन्य भी बहुतसे गुण वैयावृत्त्यसे इस लोक में प्राप्त होते हैं ।। ३४४ ॥ वैयावृत्त्यके फलसे परलोकमें भी जीब सुरूपवान्, चिरयाष्क, रोग-शोकसे रहित, बल, तेज और सत्त्वसे युक्त तथा पूर्ण प्रतापी होता है ।। ३४५ ।। वैयावृत्त्यसे जल्लौषधि, सवौंषषि, और अक्षीणमहानस आदि ऋद्धियाँ, तथा अणिमा आदि अष्ट गुण प्राप्त होते हैं ।। ३४६ ।। अधिक कहनेसे क्या, वैयावृत्त्य करनेसे यह जीव तीन लोकमें संक्षोभ अर्थात् हर्ष और आश्चर्यको करानेवाला महान् तीर्थङ्कर नामका पुण्य उपार्जन करता है ।। ३४७ ॥ वसुदेवका जीव पूर्वभवमें वैयावृत्त्य कर तरुणीजनोंके नयन और मनको हरण करने वाले रूप, बल, तेज और सत्त्वसे सम्पन्न वसूदेव नामका कामदेव हुआ। ३४८॥ द्वारावतीमें व्रत-संयमसे रहित असंयत भी वासुदेव श्रीकृष्णने वैयावृत्त्य करके तीर्थंकर नामक पुण्यप्रकृतिका उपार्जन किया ।। ३४९ ॥ इस प्रकार वैयावृत्त्यके फलको जानकर दृढ निश्चय होकर परम भक्तिके साथ श्रावकको सदा वैयावृत्त्य करना चाहिए ॥ ३५० ।। १ द्वारावत्याम् । (१) वैयावृत्यकृतः किञ्चिदुर्लभं न जगत्त्रये । विद्या कीर्तिः यशो लक्ष्मीः धीः सौभाग्यगुणेष्वपि ।। २०७ ।।-गुण० श्रा० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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