Book Title: Shravakachar Sangraha Part 1
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 483
________________ ४६४ श्रावकाचार-संग्रह णाम-ट्रवणा-दव्वे खित्ते काले वियाण भावे य । छविहपूया भणिया समासओ जिणरिदेहिं ।। ३८१ (१) नामपूजा उच्चारिऊण णामं अरुहाईणं विसुद्धदेसम्मि । पुप्फाणि जं खिविज्जंति वणिया' णामपूया सा ॥ ३८२ (२) स्थापना पूजा सब्भावासब्भावा दुविहा ठवणा जिणेहि पण्णता। सायारवंतवत्थुम्मि जंगुणारोवणं पढमा।। ३८३ अक्खय-वराडओ वा अमुगो एसो त्ति णिययबुद्धोए । संकप्पिऊण वयणं एसा विइया असन्भावा ।। ३८४ (३) हुंडावसप्पिणीए विइया ठवणाण होदि कायवालोए कुलिंगमइमोहिए जदो होइ संदेहो ३८५(४) कारागिदपडिमा पइट्ठलक्खणविहिं फलं चेव। एदे पंचहियाराणायव्वा पढमठवणाए॥३८६ (५) कारापक-लक्षण भागी वच्छल्ल-पहावणा-खमा-सच्च-महवोवेदो। जिणसासण-गुरुभत्तोसुत्ते कारावगो भणिदो।३७८ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा संक्षेपसे छह प्रकारकी पूजा जिनेन्द्रदेवने कही है ।। ३८१ ।। अरहन्त आदिका नाम उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेशमें जो पुष्प क्षेपण किये जाते हैं, वह नामपूजा जानना चाहिए ।। ३८२ ।। जिन भगवान्ने सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापना, यह दो प्रकारकी स्थापना पूजा कही है। आकारवान् वस्तुमें जो अरहन्त आदिके गुणोंका आरोपण करना, सो यह पहली सद्भावस्थापना पूजा है । और अक्षत, वराटक ( कौडी या कमलगट्टा ) आदिम अपनी बुद्धिसे यह अमुक देवता है ऐसा संकल्प करके उच्चारण करना, सो यह असद्भावस्थापना पूजा जानना चाहिए ।।३८३-३८४॥ हुडावसर्पिणी कालमें दूसरी असद्भावस्थापना पूजा नही करना चाहिए, क्योंकि, कुलिंग-मतियोंसे मोहित इस लोकमें संदेह हो सकता है ।। ३८५ ।। पहली सद्भावस्थापना-पूजामें कारापक अर्थात् प्रतिमाको बनवाकर उसकी प्रतिष्ठा करानेवाला, इन्द्र अर्थात् प्रतिष्ठाचार्य, प्रतिमा, प्रतिष्ठाको लक्षणविधि, ओर प्रतिष्ठाका फल, ये पाँच अधिकार जानना चाहिए॥ ३८६ ।। भाग्यवान, वात्सस्य.प्रभावना.क्षमा. सत्य और मार्दव गणसे संयक्त देव, शासन अर्थात् शास्त्र और गुरुकी भक्ति करनेवाला प्रतिष्ठाशास्त्र में कारापक कहा गया है १ ब वाणिया। २ इ. एसु। ३ य. ध होई। (१) स नाम-स्थापना-द्रव्य-क्षेत्र-कालाच्च भावतः । षोढार्चाविधिरुद्दिष्टो विधेयो देशसंयतः ।। २१२।।-गुण० श्राव. (२) नामोच्चारोऽहंतादीनां प्रदेशे परितः शुचौ । य: पुष्पाक्षतनिक्षपा क्रियते नामपूजनम् ।। २१३ ॥ (३) सद्भावेतरभेदेन स्थापना द्विविधा मता। सद्भावस्थापना भावे साकारे गुणरोपणम् ।। २१४ ॥ उपलादौ निराकारे शुचौ संकल्पपूर्वकम् । स्थापनं यदसद्भावः स्थापनेति तदुच्चते ।। २१५ ।। (४) हूंडावसर्पिणीकाले द्वितीया स्थापना बुधः। न कर्तव्या यतो लोके समूढसंशयो भवेत् ॥ २१६॥ (५) निर्मापकेन्द्रप्रतिमा प्रतिष्ठालक्ष्म तत्फलम् । अधिकाराश्च पंचते सद्भावस्थापने स्मृताः ।।२१७॥ -गुणभुषण श्रावकाचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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