Book Title: Shravakachar Sangraha Part 1
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 471
________________ ४५२ श्रावकाचार-संग्रह सत्तमि तेरसि दिवसम्मि अतिहिजणभोयणावसाणम्मि । भोत्तूण भुंजणिज्जं तत्थ वि काऊण मुहसुद्धि ॥ २८१ पक्खालिऊण वयणं कर-चरणे नियमिऊण तत्थेव । पच्छा जिणिदभवणं गंतूण जिणं णमंसित्ता ॥ २८२ गुरुपुरओ किदियम्मं' बंदणपुव्वं कमेण काऊण। गुरुसक्खियमुववासं गहिऊण चउव्हिहं विहिणा || वाण कहाणुपेण- सिक्खावण-चितणोवओगेह । णेऊण दिवससेसं अवराहियवंदणं किच्चा । २८४ रणि समयहि ठिच्चा काउस्सग्गंण निययसत्तीए । पडिलेहिऊण भूमि अप्पमाणेण संथारं ।। २८५ दाऊण किचि रात सहऊण' जिणालए णियघरे वा । अहवा सयलं ति काऊस्सग्गेण णेऊण || २८६ पच्चूसे उद्वित्ता वंदणविहिणा जिणं णमंसित्ता । तह दव्व-भावपुज्जं जिण सुय- साहूण काऊण ॥ २८७ उत्तविहाणेण तहा दियहं रत्ति पुणो वि गमिऊण पारणदिवसम्मि पुणो पूर्व काऊण पुव्वं व ।। २८८ गंण निययगेहं अतिहिविभागं च तत्थ काऊण। जो भुंजइ तस्स फुडंपोसहवि हि उत्तमं होइ । २८९ ★ हक्क तह मज्झिमं वि पोसहविहाणमुद्दिट्ठ । णवर विसेसो सलिल छंडिता' वज्जए सेसं ॥ ऊ गुरुवकज्जं सावज्जविवज्जियं णियारंभं । जइ कुणइ तं पि कुज्जा सेसं पुग्वं व णायव्वं ॥ को अपनी शक्तिके अनुसार एक मासके चारों पर्वोंमें करना चाहिए । २८० ॥ सप्तमी और त्रयोदशी के दिन अतिथिजनके भोजन के अन्तमें स्वयं भोज्य वस्तुका भोजनकर वहींपर मुख शुद्धिको करके, मुखको और हाथ-पैरोंको धोकर वहाँपर ही उपवास सम्बन्धी नियम करके पश्चात् जिनेन्द्र भवन जाकर और जिनभगवान्‌को नमस्कार करके गुरुके सामने वन्दनापूर्वक क्रमसे कृतिकर्मको करके, गुरुकी साक्षी से विधिपूर्वक चारों प्रकारके आहारके त्यागरूप उपवासको ग्रहण कर शास्त्र वाचन, धर्मकथा-श्रवण-श्रावण, अनुप्रेक्षा- चिन्तन, पठन-पाठन आदिके उपयोग द्वारा दिवस व्यतीत करके तथा आपराह्निक-वंदना करके, रात्रिके समय अपनी शक्तिके अनुसार कायोत्सर्ग से स्थित होकर, भूमिका प्रतिलेखन (संशोधन) करके, और अपने शरीर के प्रमाण बिस्तर लगाकर रात्रि में कुछ समय तक जिनालय अथवा घरमें सोकर, अथवा सारी रात्रि कायोत्सर्गसे बिताकर प्रातःकाल उठकर वंदना विधि से जिन भगवान्‌को नमस्कार कर, तथा देव, शास्त्र और गुरुका द्रव्य वा भावपूजन करके पूर्वोक्त विधान से उसी प्रकार सारा दिन ओर सारी रात्रिको फिर भी बिताकर पारणाके दिन अर्थात् नवमी या पूर्णमासीको पुनः पूर्वके समान पूजन करके तत्पश्चात् अपने घर जाकर और वहाँ अतिथिको आहारदान देकर जो भोजन करता है, उसके निश्चयसे उत्तम प्रोषधविधि होती है ।। २८१ - २८९ ।। जिस प्रकारका उत्कृष्ट प्रोषध विधान कहा गया है, उसी प्रकारका मध्यम प्रोषध विधान भी जानना चाहिए । केवल विशेषता यह है कि जलको छोडकर शेष तीनों प्रकारके आहारका त्याग करना चाहिए ।। २९० ।। जरूरी कार्य को समझकर सावद्य-रहित अपने घरू आरम्भ बछडा । १ ब. किरियम्मि । २ ध झ ब. प्रतिषु 'णाऊण' इति पाठ: ।. * उत्तमो मध्यमश्चैव जघन्यश्चेति स विधा । यथाशक्तिविधातव्यः कर्मनिर्मूलनक्षमः ।। १७० ।। सप्तम्यां च त्रयोदश्यां जिनाच पात्रसत्क्रियाम् । विधाय विधिवच्चकभक्तं शुद्धवपुस्ततः ।। १७१ । गुर्वादिनिधि गत्वा चतुराहारवर्जनम् । स्वकृत्य निखिलां रात्रि नयेच्च सत्कथानकैः ॥ १७२ ॥ प्रातः पुनः शुचिर्भूत्वा निर्माप्यार्हत्पूजनम् । सोत्साहस्तदहोरात्रं सद्ध्यानाध्ययनैर्नयेत् ॥ १७३ ॥ तत्पारणान्हि निर्माप्य जिनाच्च पात्रसत्क्रियाम् । स्वयं वा चैकभक्तं यः कुर्यात्तस्योत्तमो हि सः ।। १७४ ।। मध्यमोऽपि भवेदेवं स त्रिधाहारवर्जनम् । जलं मुक्त्वा जघन्यस्त्वेकभक्तादिरनेकधा ।। १७५ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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