Book Title: Shravakachar Sangraha Part 1
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 463
________________ ४४४ श्रावकाचार-संग्रह एवं सणसावयठाणं पढम समासओ भणियं । वयसावयगुणठाणं एत्तो विवियं पवक्खामि ॥ २०६ द्वितीय व्रतप्रतिमा-वर्णन *पंचेव अणुव्वयाइं गुणन्वयाइं हवंति पुण' तिण्णि । सिक्खावयाणि चत्तारि जाण विदियम्मि ठाणम्मि ॥ २०७ पाणाइवायविरई सच्चमदत्तस्स वज्जणं चेव । थूलयड बंभचेर इच्चाए गंथपरिमाणं ॥ २०८ ते तसकाया जीवा पुवुद्दिट्ठा ण हिंसियव्वा ते । एइंदिया वि णिक्कारणेण पढमं वयं थूलं ।। २०९ अलियं ण जपणीयं पाणिबहकरंतु सच्चवयणं पि । रायेण य दोसेण य णेयं विदियं वयं थूलं ।। २१० पुर-गाम-पट्टणाइसुपडियं णलैंचणिहिय वीसरियं परदध्वमगिण्हंतस्स होइ थूलवयं तदिय ॥२११ *पव्वेसु इत्थिसेवा अणंगकोडासया विवज्जतोथूिलयडबंभयारी जिणेहि भणिओपवयणम्मि।।२१२ जं परिमाणं कीरड धण-धण्ण-हिरण्ण-कंचणाईणं। तं जाण पंचमवयं णिहिट्ठमुवासयज्झयणे ॥ २१३ (१) गुणव्रत-वर्णन पुव्वत्तर-दक्षिण-पच्चिमासु काऊण जोयणपमाणं परदो गमणणियत्ती दिसि विदिसि गुणव्वयं पढमं ॥ २१४ (२) करता है, वह प्रथम प्रतिमाधारी दर्शन-श्रावक कहा गया है ।। २०५ ।। इस प्रकार दार्शनिक श्रावकका पहला स्थान संक्षेपसे कहा । अब इससे आगे व्रतिक श्रावकका दूसरा स्थान कहता हूँ ।।२०६।। द्वितीय स्थानमें, अर्थात् दूसरी प्रतिमामें पाँचों ही अणुव्रत, तीन गुणव्रत, तथा चार शिक्षावत होते हैं ऐसा जानना चाहिए ।। २०७ ।। स्थूल प्राणातिपातविरति, स्थूल सत्य, अदत्त वस्तुका वर्जन स्थूल ब्रह्मचर्य और इच्छानुसार स्थूल परिग्रहका परिमाण ये पांच अणुव्रत होते हैं ।। २०८ ।। जो त्रसजीव पहले बतलाये गये हैं, उन्हें नहीं मारना चाहिए और निष्कारण णर्थात् बिना प्रयोजन एकेन्द्रिय जीवोंको भी नहीं मारना चाहिए, यह पहला स्थल अहिंसावत है ॥२०९। रागसे अथवा द्वेषसे झूठ वचन नहीं बोलना चाहिए और प्राणियोंका घात करनेवाला सत्य वचन भी नहीं बोलना चाहिए, यह दूसरा स्थूल सत्यव्रत जानना चाहिए ।। २१० ।। पुर, ग्राम, पत्तन, क्षेत्र आदिमें पडा हुआ, खोया हुआ, रखा हुआ, भुला हुआ, अथवा रख करके भूला हुआ पराया द्रव्य नहीं लेनेवाले जीवके तीसरा स्थूल अचौर्यव्रत होता है ।। २११ ।। अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्वके दिनोंमें स्त्री-सेवन और सदैव अनंगक्रीडाका त्याग करने वाले जीवको प्रवचनमें जिनेन्द्र भगवान्ने स्थूल ब्रह्मचारी कहा है ।। २१२ ।। धन, धान्य, हिरण्य, सुवर्ण आदिका जो परिमाण किया जाता है, वह पंचम अणुव्रत जानना चाहिए, ऐसा उपासकाध्ययन में कहा गया है ।। २१३ ॥ पूर्व, उत्तर. दक्षिण और पश्चिम १ ब. तद । (तह ? ) २ ब. बंभचेरो । ३ इ. हिंसयव्वा । ४ इ. झ विइयं, वियं । ५ ब. तइयं । ६ ब. जाणि । ७ ब परओ। * पंचधाणुव्रतं यस्य त्रिविधं च गुणवम् । शिक्षाव्रतं चतुर्धा स्यात्सः भवेद् वतिको यतिः ॥ १३० ॥ क्रोधादिनापि नो वाच्यं वचोऽसत्यं मनी षिणा। सत्यं तदपि नो वाच्य यत्स्यात प्राणिविघातकम् ॥१३४॥ ग्रामे चतु पथादौ वा विस्मतं पतितं धतम । परद्रव्यं हिरण्यादि वर्ण्य स्तेयविजिना ।। १३५ ।। * स्त्रीसेवानगरमणं यः पर्वणि परित्यजत्। सः स्थूल ब्रह्मचारो च प्रोक्तं प्रवन ने जिनेः ।१३६ -गुण पाव० (१) धनधान्यहिरण्यादिप्रमाणं यद्विधीयते । ततोऽधिके च दातास्मिन् निवृत्तिः सोऽपरिग्रहः ।।१३७।। (२) दिग्देशानथदण्डविरति। स्याद् गुणवतम् । सा दिशाविरतियां स्याद्दिशानुगमनप्रमा ॥ १४० ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,

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