Book Title: Shravakachar Sangraha Part 1
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 466
________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४४७ पुप्फंजलि खिवित्ता पयपुरओ वंदणं तओ कुज्जा। चइऊण अट्ट-रुद्दे मणसुद्धी होइ कायव्वा ।। २२९ णिठ्ठर-कक्कस वयणाइवज्जणं तं वियाण वचिसुद्धिासव्वत्थ संपुडंगस्स होइ तह कायसुद्धी वि।२३० *चउदसमलपरिसुद्धं जं दाणं सोहिऊण जइणाए ।संजमिजणस्स दिज्जइ साणेया एसणासुद्धी॥२३१ दाणसमयम्मि एवं सुत्तणुसारेण णव विहाणाणि।भणियाणि मए एण्हिं दायव्वं वण्णइस्सामि ।।२३२ दातव्य-वर्णन आहारोसह-सत्थाभयभेओ जं चउन्विहं दाणं । तं वुच्चइ दायव्वं णिविट्टमवासयज्झयणे ।। २३३ असणं पाणं खाइमं साइयमिदि चउविहो वराहारो। पुवुत्त-णव-विहाणेहि तिविहपत्तस्स दायव्वो। २३४ अइबुड्ढ-बाल-मयंध-बाहिर देसंतरीय-रोडाणं जहजोग्गं दायव्वं करुणादाण त्ति भणिऊण ॥ २३५ उववास-वाहि-परिसम-किलेस परिपीडयं मुणेऊण । पत्थं सरीरजोग्गं भेसजदाणं पि दायव्वं ॥२३६ आगम-सत्थाई लिहाविऊण दिण्जति जं जहाजोग्गं । तं जाण सत्थदाणं जिणवयणज्झावणं च तहा ।। २३८ घरमें ले जाकर निरवद्य अर्थात् निर्दोष तथा ऊंचे स्थानपर बिठाकर, तदनन्तर उनके चरणोंको धोना चाहिए ।। २२७ ।। पवित्र पादोदकको शिरमें लगाकर पुनः गंध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फलोंसे पूजन करना चाहिए ।। २२८ ।। तदनन्तर चरणोंके सामने पुष्पांजलि क्षेपण कर वंदना करे। तथा, आर्त और रौद्र ध्यान छोडकर मनःशद्धि करना चाहिए ।। २२९ ।। निष्ठर और कर्कश आदि वचनोंके त्याग करनेको वचनशुद्धि जानना चाहिए। सब ओर संपुटित अर्थात् विनीत अग रखनेवाले दातारके कायशुद्धि होती है। २३० ।। चौदह मल-दोषोंसे रहित, यतनासे शोधकर संयमी जनको जो आहारदान दिया जाता है, वह एषणा-शुद्धि जानना चाहिए ।। २३१ ॥ विशेषार्थ-नख, जंतु, केश, हड्डी, मल, मूत्र, मांस, रुधिर, चर्म, कंद, फल, मूल, बीज और अशुद्ध आहार ये भोजन-सम्बन्धी चौदह दोष होते हैं । इस प्रकार उपासकाध्ययन सूत्रके अनुसार मैंने दानके समयमें आवश्यक नौ विधानों को कहा। अब दातव्य वस्तुका वर्णन करूँगा।॥२३२।। आहार, औषध, शास्त्र और अभयक भेदसे जो चार प्रकारका दान है, वह दातव्य कहलाता है, ऐसा उपासकाध्ययनमें कहा गया है। २३३ ।। अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ये चार प्रकारका श्रेष्ठ आहार पूर्वोक्त नवधा भक्तिसे तीन प्रकारके पात्रको देना चाहिए ।। २३४ ।। अति वृद्ध, बालक, मक (गूगा). अंध वधिर (बहिरा) देशान्तरीय (परदेशी) और रोगी दरिद्री जीवोंको ‘करुणादान दे रहा हूँ ऐसा कहकर अर्थात् समझकर यथायोग्य आहार आदि देना चाहिए।। २३५ ।। उपवास ; व्याधि, परिश्रम और क्लेशसे परिपीडित जीवको जानकर अर्थात् देखकर शरीरके योग्य पथ्यरूप औषधदान भी देना चाहिए ॥२३६।। जो आगम-शास्त्र लिखाकर यथायोग्य पात्रों को दिये जाते हैं, उसे शास्त्रदान जानना चाहिए। तथा जिन-वचनोंका अध्यापन कराना-पढाना भी शास्त्रदान है ।। २३७ ।। १ झ. ब. एयं। २ इ. वच्चइ,। ३ दरिद्राणाम् । ४ झ. पडि० । । झ ध. ब. प्रतिषु गाथेयमधिकोपलम्यतेणह-जंतु-रोम-अट्टी-कण-कुडय-मंस-रुहिर-चम्माइं । कंद-फल-मूल-बोया छिण्ण मला चउद्दसा होति ।। १ ।। -मूलाचार ४८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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