Book Title: Shravakachar Sangraha Part 1
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 461
________________ ४४२ श्रावकाचार-संग्रह पूव्वं दाणं दाऊण को वि सधणो जणस्स जहजोगं । पच्छा सो धणरहिओ ण लहइ कूरं पि जायंतो ।। १८६ अण्णो उ पावरोएण' बाहिओ णयर-बज्झदेसम्मि । अच्छइ सहायरहिओ ण लहइ सघरे वि चिटेउं ॥ १८७ तिसओ वि भुक्खिओ हं पुत्ता मे देहि पाणमसणं च । एवं कूवंतस्स वि ण कोइ वयणं च से देइ ।। १८८ तो रोय-सोयभरिओ-सव्वेसि सव्वहियाउ" दाऊण । दुक्खेण मरइ पच्छा धिगत्थु मणुयत्तणमसारं ।। १८९ अण्णाणि एवमाईणि जाणि दुक्खाणि मणुयलोयम्मि । दीसंति ताणि पावइ वसणस्स फलेणिमो जीवो ॥ ११० दवगतिदुःख-वर्णन किंचवसमेण पावस्स कह वि देवत्तणं वि संपत्तो । तत्थ वि पावइ दुक्खं विसणज्जियकम्मपागण । १९१ दटूण महढ्डीणं देवाणं ठिइज्जरिद्धिमाहप्पं । अप्पडिढओ विसूरइ माणसदुक्खेण डझंतो॥ १९२ हा मणुयभवे उप्पज्जिऊण तव-संजमं वि लभृण । मायाए जं वि कयं देवदुग्गयं तेण संपत्तो। १९३ कंदप्प-किब्भिसासुर-वाहण-सम्मोह देवजाईसु । जावज्जीवं णिवसइ विसहंतो माणसं दुक्खं ।। १९४ पराये घरमें जूठन खाता हुआ दुःखके साथ जीता है ।। १८५ ।। यदि कोई मनुष्य पूर्वभवमें मनुष्योंको यथायोग्य दान देकर इस भवमें धनवान् भी हुआ और पीछे (पाप उदयसे) धन-रहित हो गया, तो मांगनेपर खानेको कूर (भात) तक नहीं पाता है ।। १८६ ।। कोई एक मनुष्य पापरोग अर्थात् कोढसे पीडित होकर नगरसे बाहर किसी एकान्त प्रदेश में सहाय-रहित होकर अकेला रहता है, वह अपने घरमें भी नहीं रहने पाता ।। १८७ ।। मैं प्यासा हुं और भूखा भी हूं; बच्चो, मुझे अन्न जल दो-खाने-पीनेको दो-इस प्रकार चिल्लाते हुए भी उसको कोई वचनसे भी आश्वासन तक नहीं देता है ।। १८८ ।। तब रोग-शोकसे भरा हुआ वह सब लोगोंको नाना प्रकारके कष्ट देकरके पीछे स्वयं दुःखसे मरता है। ऐसे असार मनुष्य जीवनको धिक्कार है ।। १८९ ।। इन उपर्युक्त दुःखोंको आदि लेकर जितने भी दुःख मनुष्यलोकमें दिखाई देते हैं, उन सबको व्यसनके फलसे यह जीव पाता है ।। १९० ॥ यदि किसी प्रकार पापके कुछ उपशम होनेसे देवपना भी प्राप्त हुआ तो, वहांपर भी व्यसन-सेवनसे उपाजित कर्मके परिपाकसे दुःख पाता है । १९१ ।। देव,पर्यायमें महद्धिक देवोंकी अधिक स्थिति.जनित ऋद्धिके माहात्म्यको देखकर अल्प ऋद्धिवाला वह देव मानसिक दुःखसे जलता हुआ, विसूरता (झूरता) रहता है ।। १९२ ।। और सोचा करता है कि हाय, मनुष्य-भवमें भी उत्पन्न होकर और तप-संयमको भी पाकर उसमें मैंने जो मायाचार किया, उसके फलसे में इस देव-दुर्गतिको प्राप्त हुआ हूँ, अर्थात् नीच जातिका देव हुआ हूँ ।। १९३ ।। कन्दर्प, किल्विषिक, असुर, वाहन, सम्मोहन आदि देवोंकी कुजातियोंमें इस प्रकार मानसिक दुःख सहता हुआ वह यावज्जीवन निवास करता है ।। १९४ देवगतिमें छह मास आयुके शेष रह जानेपर वस्त्र और आभूषण मैले । कुष्टरोगेणेत्यर्थः । २ ध. 'पभुक्खिओ' ३ व. देह। ४ (कूजंतस्स ? ) । ५ ब सवहियाउ । सर्वाहितान् इत्यर्थः । ६ इ. कं कप्प, झ. बि जं कयं । ७ इ. समोह । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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