Book Title: Shravakachar Sangraha Part 1
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 453
________________ ४३४ श्रावकाचार-संग्रह अण्णो वि परस्स धणं जो हरई' सो एरिसं फलं लहइ । एवं भणिऊण पुणो णिज्जइ पुर-बाहिरे तुरियं ॥१०८ णेत्तुद्धारं अह पाणि-पायगहणं णिसुंभणं अहवा। जीवंतस्स विसूलावारोहणं कीरइ खलेहि' १०९ एवं पिच्छंता विहु परदव्वं चोरियाइ गेण्हति । ण मुणंति कि पि सहियं पेच्छह हो मोह माहप्पं ।। परलोए वि य चोरी चउगइ-संसार-सायर-निमण्णो। पावइ दुक्खमणंतं तेयं परिवज्जए तम्हा १११ परदारादोष-वर्णन बठूण परकलतं णिन्द्धी जो करेइ अहिलासं । णय कि पि तत्थ पावइ पावं एमेव अज्जेइ ११२ णिस्ससइ रुयइ गायइ णिययसिरं हणइ महियले पउह। परमहिलमलभमाणो असप्पलावं पिजपेइ।। चितेइ मं किमिच्छह ण वेइ सा केण वा उवाएण । 'अण्णेमि' कहमि कस्स वि ण वेत्ति चिताउरो सददं ॥११४ ण य कत्थ वि कुणइ रई मिट्ठ पि य भोयणं ण भुंजेइ । णिइं अलहमाणो अच्छइ विरहेण संतत्तो ॥१९५ लज्जाकुलमज्जायं छंडिऊण मज्जाइमोयणं किच्चा। परमहिलाणं चित्तं अमुणंतो पत्थणं कुणइ ॥११६ णेच्छंति जइ वि ताओ उवयारसयाणि कुणइ सो तह वि । णिन्भच्छिज्जंतो पुण अप्पाणं झूरइ विलक्खो। ११७ प्रकार फलको पाता है, ऐसा कहकर पुनः उसे तुरन्त नगरके बाहर ले जाते हैं ।। १०८ ॥ वहाँ ले जाकर खलजन उसकी आंखें निकाल लेते हैं, अथवा हाथ-पैर काट डालते हैं, अथवा जीता हुआ ही उसे शूलीपर चढा देते हैं ।। १०९ । इस प्रकारके इहलौकिक दुष्फलोंको देखते हुइ भी लोग चोरीसे पराये धनको ग्रहण करते हैं और अपने हितको कुछ भी नहीं समझते हैं, यह बडे आश्चर्यकी बात है। हे भव्यो, मोहके माहात्म्यको देखो ॥११०॥ परलोक में भी चोर चतुर्गतिरूप संसार-सागरमें निमग्न होता हुआ अनन्त दुःखको पाता है, इसलिए चोरीका त्याग करना चाहिए ।। १११ ।। जो निर्बुद्धि पुरुष परायी स्त्रीको देखकर उसकी अभिलाषा करता है, सो ऐसा करनेपर वह पाता तो कुछ नहीं है, केवल पापका ही उपार्जन करता है, ।। ११२॥ परस्त्री-लम्पट पुरुष जब अभिलषित पर-महिलाको नहीं पाता है, तब वह दीर्घ निःश्वास छोडता है रोता है कभी गाता है, कभी अपने शिरको फोडता है और कभी भूतल पर गिरता पडता है और असत्प्रलाप भी करता है ।। ११३ ।। परस्त्री-लम्पट सोचता है कि वह स्त्री मुझे चाहती है, अथवा नहीं चाहती ? मैं उसे किस उपायसे लाऊँ ? किसीसे कहूं, अथवा नहीं कहूं? इस प्रकार निरन्तर चिन्तातुर रहता है ॥ ११४ ।। वह परस्त्री-लम्पटी कहीं पर भी रतिको नहीं प्राप्त करता है, मिष्ट भी भोजनको नहीं खाता है और कुल-मर्यादाको छोडकर मद्य-मांस आदि निंद्य भोजनको करके परस्त्रियों के चित्तको नहीं जानता हुआ उनसे प्रार्थना किया करता है ।। ११६ ॥ इतने पर भी यदि वे स्त्रियां उसे नहीं चाहती हैं तो वह उनकी सैकडों खुशामदें करता है। फिर भी उनसे भर्त्सना किये जाने पर विलक्ष अर्थात् लक्ष्य-भ्रष्ट हुआ वह अपने आपको झूरता रहता है ।। ११७ ।। यदि वह लम्पटी १ झ हरेइ । २ ब. खिलेहि । ३ ब. मोहस्स । ४ अलभमाणो। ५ इ. -कुलकम्म, म. ब. ध. -कुलक्कम। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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