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अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
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दिधक्षवो भवारण्यं ये कुर्वन्ति तपोऽनघम् । निराकृताखिलग्रन्था निस्स्पृहाः स्वतनावपिः ॥३२ निधानमिव रक्षन्ति ये रत्नत्रयमादृताः । ते सद्भिर्वरिवस्यन्ते साधवो मव्यबान्धवाः ।।३३ अर्चयक्ष्यस्त्रिधा पुंभ्यः पञ्चेति परमेष्ठिनः । नश्यन्ति तरसा विघ्ना बिडालेभ्य इवाऽऽखवः ॥३४ पूजयन्ति न ये दोना भक्तित: परमेष्ठिनः । सम्पद्यते कुतस्तेषां शर्म निन्दितकर्मणाम् ।।३५ इन्द्राणां तीर्थकर्तणा केशवानां स्थाङ्गिनाम् । सम्पदः सकला: सद्यो जायन्ते जिनपूजया ॥३६ मानवमानवावासे त्रिदर्शस्त्रिदशालये । खेचरः खेचरावासे पूज्यन्ते जिनपूजकाः ॥३७ सकामा मन्मथालापा निविडस्तनमण्डला: । रमणी रमणीयाङ्गा रमयन्ति जिनाचिनः ॥३८ पवित्रं यन्निरातङ्क मुक्तानां' पदमव्ययम् । दुष्प्रापं विदुषामयं प्राप्यते तजिनार्चकः ।।३९ जिनस्तवं जिनस्नानं जिनपूजां जिनोत्सवम् । कुर्वाणो भक्तितो लक्ष्मी भजते याचितां जनः ।।४० संसारारातिभीतस्य व्रतानां गुरुसाक्षिकम् । गृहीतानामशेषाणां रक्षणं शीलमुच्यते ॥४१ साक्षीकृता व्रतादाने कुर्वते परमेष्ठिनः । भूपा इव महादुःखं विचारे व्यभिचारिणः ॥४२ एकदा ददते दु खं नरनाथास्तिरस्कृताः । गुरवो न्यक्कृता दुःखं वितरन्ति भवे मवें ।.४३ शरीरमें भी निस्पृह है, जो निधानके समान रत्नत्रय धर्मकी अति आदरपूर्वक रक्षा करते है ऐसे भव्य जीवोंके बन्धु साधुजन सज्जनोंके द्वारा निरन्तर आराधना किये जाते हैं।॥३१-३३।। इस प्रकार उपर्युक्त इन पंच परमेष्ठियोंका मन वचन कायसे पूजन करनेवाले पुरुषोंके सर्व विघ्न इस प्रकारसे शीघ्र विनष्ट हो जाते हैं, जिस प्रकार कि विलावोंसे मूषक विनष्ट हो जाते है ।।३४।। जो दीन पुरुष पंच परमेष्ठीकी भक्ति से पूजा नहीं करते हैं उन निन्द्य कर्म करनेवाले पुरुषोंको सुख कहांसे प्राप्त हो सकता है ॥३५॥ जिनेन्द्रदेवकी पूजासे इन्द्रोंकी, तीर्थंकरोंकी, नारायणोंकी और चक्रवर्तियोंको सर्व सम्पदाएं शीघ्र प्राप्त होती है ॥३६॥ जिन देवकी पूजा करने वाले पुरुष मनुष्यलोकमें मानवोंके द्वारा, देवलोकमें देवोंके द्वारा और विद्याधरोंके आवासमें विद्याधरोंके द्वारा पूजे जाते है ।।३७।। जिन भगवान्की पूजा करनेवाले मनुष्योंको काम सेवनके लिए उत्सुक, मधर वचन बोलनेवाली. सघन स्तन-मण्डलोंकी धारक और रमणीय शरीर वाली ऐसी रमणियां रमाती हैं, अर्थात् जिनपूजनके पुण्यबन्धसे स्वर्गादिमें उत्तम स्त्रियोंकी प्राप्ति होती हैं।।३८।। सिद्धोंका जो पद परम पवित्र हैं, आतंक-रहित है, अव्यय हैं, दुष्प्राप्य है और विद्वानोंके द्वारा प्रार्थनीय हैं, वह जिनदेवकी पूजा करनेवाले पुरुषोंको प्राप्त होता है ।।३९। जिनदेवका स्तवन, जिनेन्द्रका अभिषेक, जिन पूजा और जिन देवका उत्सव भक्तिसे करनेवाला मनुष्य मनोवांछित लक्ष्मीको प्राप्त करता हैं ।।४०।। अब आचार्य आगे शीलका वर्णन करते हैं-संसाररूप शत्रुसे भयभीत पुरुष के गुरु-साक्षी पूर्वक ग्रहण किये समस्त व्रतोंकी रक्षा करनेको शील कहते हैं ॥४१॥ व्रत-ग्रहण करने में साक्षी किये गये परमेष्ठी व्रतोंके पालने के विचारमें व्यभिचार करने वाले पुरुषको राजाओं के समान महादुःख देते है ॥४२॥
भावार्थ-जैसे राजा के सम्मुख की हुई प्रतिज्ञा के भंग करने वाले पुरुषको राजा भारी दण्ड देता हैं, उसी प्रकार पंच परमेष्ठीकी साक्षी पूर्वक व्रत ग्रहण करके उसे भंग करनेवाला पुरुष महान् दुःख को पाता हैं । अरहन्तादि परमेष्ठी वीतराग है, वे किसी को कुछ दुःख नहीं देते है। किन्तु उनकी साक्षीपूर्वक व्रत लेकर उसे भंग करने वाला पुरुष अपने ही मलिन १. मु. सिद्धांनां ।
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