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अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
समर्थ निर्मलीकर्तु शुक्लं रत्नशिखास्थिरम् । अपूर्वकरणादीनां मुमुक्षूणां प्रवर्तते ॥ १८ अन्हायोद्धयते सर्वं कर्म ध्यानेन सञ्चितम् । वृद्धं समीरणेनेव बलाहककदम्बकम् ।। १९ ।। ध्यानद्वयेन पूर्वेण जन्यन्ते कर्मपर्वताः । वज्रेणेव विभिद्यन्ते परेण सहसा पुनः ।। २० यो ध्यानेन विना मूढः कर्मच्छेदं चिकीर्षति । कुलिशेन विना शैलं स्फुटमेष बिभित्सति ॥ २१ ध्यानेन निर्मलेनाऽऽशु हन्यते कर्मसञ्चयः । हुताशनकणेनापि प्लुष्यते' कि न काननम् ।। २२
विशेषार्थ - धर्म्यध्यानके वे दश भेद इस प्रकार हैं- अपायविचय उपायविचय जीवविश्चय अजीवविचय विपाकविचय विरागविचय भवविचय संस्थानविचय आज्ञाविचय और हेतुविचय । इनका स्वरूप संक्षेप में इस प्रकार है-संसार में परिभ्रमण करते और नाना प्रकारके दुःखोंको उठाते हुए ये जीव कैसे इनसे छूटें? में भी कैसे इनसे छूटं ? इस प्रकारके चिन्तवन करनेको अपायविचय धर्मध्यान कहते हैं । सांसारिक दुःखोंसे छूटने की कारणभूत मन वचन कायकी उत्तम प्रवृत्ति मेरे कब व कैसे हो, ऐसा विचारना उपाय विचय धर्मध्यान है। जीव उपयोग स्वरूप है, अपने शुभअशुभ कर्मोंका कर्त्ता और उनके फलका भोक्ता है. असंख्यात प्रदेशी है, सूक्ष्मं एवं अमूर्त हैं, इत्यादिरूपसे जीवके स्वरूपका चिन्तवन करना जीवविचयधर्मध्यान है। अजीवद्रव्यका स्वरूप और उनके भेदोंका विचार करना अजीवविचय धर्मध्यान है । आठ कर्मोंके फल देनेका, उनके शुभ - अशुभ अनुभागका विचारना विपाकविचयधर्मध्यान है । यह शरीर अशुचि है, अशुचिका बीज है, कर्मबन्धका कारण है, इसमें रति करना नरक- निगोदका कारण है, इत्यादि रूपसे वैराग्यका चिन्तवन करना विरागविचय धर्मध्यान है । यह जीव नाना योनियोंमें जरायुज, अण्डज आदि नाना प्रकार के जन्मों को धारण करता हुआ, एक भवसे अन्य भवमें ऋजुगति, वक्रगतिसे गमन करता रहता है; संसार में परिभ्रमण करते हुए इस जीवने अनन्त भवपरिवर्तन किये हैं- इत्यादि विचार करता भवविचय धर्मध्यान है । लोकके आकारका चिन्तवन करना संस्थानविचय धर्मध्यान है | अतीन्द्रिय पदार्थोंका ज्ञान छद्मस्थ जीवोंके नहीं हो सकता है, अतः उनके विषयमें वितराग सर्वज्ञ देवकी आज्ञाको प्रमाण मानकर परलोक, बन्ध, मोक्ष आदिका विचार करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है । आगमनके किसी विवादास्पद विषयको तर्ककी कसोटीपर कसकर स्याद्वादनयके द्वारा उसका निर्धारण करना हेतुविचय धर्मध्यान है । इन दशों भेदोंका विवेचन चारित्रसारसे जानना चाहिए ।
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आत्माको निर्मल करनेके लिए समर्थ और रत्नकी ज्योतिके समान स्थिर ऐसा शुक्लध्यान आठवें अपूर्वकरण आदि गुणस्थानवर्त्ती मुमुक्षु साधुओंके होता है ॥ १८ ॥ चिरकालसे सचित सब कर्म ध्यानके द्वारा शीघ्र उडा दिये जाते हैं, जिस प्रकार कि बढ़े हुए बादलोंका समुदाय पवनके द्वारा उडा दिया जाता है ।। १९ ।। पूर्वके आर्त ओर रौद्र इन दो ध्यानोंके द्वारा कर्म रूप पर्वत उत्पन्न किये जाते है और अन्तके धर्म और शुक्ल इन दो ध्यानोंके द्वारा वे वज्र के समान सहसा छिन्न-भिन्न कर दिये जाते हैं ।। २० ।। ध्यानके विना जो मूढ कर्मोंका छेद करना चाहता है, वह निश्चयसे वज्र के विना पर्वतका भेदन करना चाहता है । २१॥ निर्मल ध्यानके द्वारा कर्मोंका सचय शीघ्र विनष्ट कर दिया जाता है क्या अग्निके कण-द्वारा वन जला नहीं दिया जाता है ? अर्थात् जला ही दिया जाता है ।। २२ ।। ध्यानको करने की इच्छा रखनेवाले पुरुषको ध्याता ध्येय ध्यानकी १. भु० ' स्यष्यते ' पाठः ।
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