________________
४०९
अमितगतिकृतः श्रावकांचार:
स्थितोऽसि आ उ सा मन्त्रश्चतुष्पत्रे । कुशेशये । ध्यायमानः प्रयत्नेन कर्मोन्मूलयतेऽखिलम् ।। ३३ तन्नाभौ हृदये वक्त्रे ललाटे मस्तके स्थिम् । गुरुप्रसादतो बुद्ध्वा चिन्तनीयं कुशेशयमृ ।। ३४ aar' farent वर्णाः स्थिता. पद्म चतुर्दले । विश्राणयन्ति पञ्चापि सम्यग्ज्ञानानि चिन्तिताः । ३५ स्थितपञ्चनमस्कार रत्नत्रयपदैर्दलैः । अष्टभिः कलिते पद्म स्वरकेसरराजिते ।। ३६ स्थितोऽहंमित्ययं मन्त्रो ध्यायमानो विधानतः । ददाति चिन्तितां लक्ष्मीं कल्पवृक्ष इवोप्रिताम् । ३७
करके ध्यान करने पर ध्याताके पापको विनष्ट करता है ।। ३२ ॥ तथा चार पत्रवाले कमलमें और मध्यकणिकापर क्रमशः असि आउ सा अक्षररूप मन्त्र का प्रयत्नपूर्वक ध्यान किया जाय तो वह ध्याता के सर्व कर्मोंका उन्मूलन करता है ।। ३३ ।। उसकी रचना इस प्रकार है
}
इसी चार पत्रवाले कमलको नाभिमें, हृदयमें मुखमे, ललाटपर और मस्तकपर गुरुप्रसादसे जानकर चिन्तवन करना चाहिए ।। ३४ ।। अ इ उ ए ये चार पत्रवाले कमलपर स्थापितकर यदि चिन्तवन किये जावें तो वे पाँचों ही ज्ञानोंको प्रदान करते है, ।। ३५ ।। यथा
Jain Education International
वाय.
आठ पत्रवाले कमलपर पंचनमस्कारमन्त्रके पाँच पद और रत्नत्रयके तीन पद स्थापित करके तथा मध्यकणिकाकी केसर पर १६ स्वरोंको स्थापित करके और मध्यमें 'अर्ह' स्थापित कर यदि यह मन्त्र विधिपूर्वक ध्यान किया जाता है तो कल्पवृक्षके समान श्रेष्ठ लक्ष्मीको प्रदान करता है ।। ३३-३७ || इस मन्त्रकी रचना इस प्रकार है
१. अ इ उ य उ ।
सम्यक
नमः
Videnth
नमः
नमः
THE HEA
htt
णमो :
अ आ
अं अः
रहंताणं
अर्ह
व्व्वसाहूणं
ફૅ
णमो लोए
ई.
ち
अ
ऊ
णमो
णमो
اعلم!
हिद्वाण
णमो
सा
For Private & Personal Use Only
सि
अ आ
उ
www.jainelibrary.org