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अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
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नाहं कस्यापि मे कश्चिन्न भावोऽस्ति बहिस्तनः । यदेषा शेमुषी साधोः शुद्धध्यानं तदा मतम् ।। ६९ रागद्वेषमद क्रोध लोभमन्मथमत्सराः । न यस्य मानसे सन्ति तस्य ध्यानेऽस्ति योग्यता ।। ७० रागद्वेषादिभिः क्षिप्तं मनः स्थैर्य प्रचात्यते । कांचनस्येव काठिन्यं दीप्यमानैर्हताशनैः ।। ७१ विद्यमाने कषायेऽस्ति मनसि स्थिरता कथम् । कल्पांतपवनः स्थौयं तृणं कुत्र प्रपद्यते ।। ७२ अक्षय्यकेवलालोक विलोकितचराचरम् । अनन्तवीर्यशर्माणममूर्त्तमनुपद्रवम् ।। ७३ निरस्त कर्मसंबंधं सूक्ष्मं नित्यं निरास्त्रवम् । ध्यायतः परमात्मानमात्मनः कर्मनिर्जरा ॥ ७४ आत्मानमात्मना ध्यायन्नात्मा भवति निर्वृतः : घर्षयन्नात्मनाऽऽत्मानं पावकोभवति द्रुमः ।। ७५ न यो विविक्तमात्मानं देहादिभ्यो विलोकते । स मज्जति भवांभोधी लिंगस्थोऽपि दुरुत्तरे ।। ७६ सविज्ञानमविज्ञानं विनश्वरमनश्वरम् । सदानात्मीयमात्मीयं सुखदं दुःखकारणम् । ७७ अनेकमेकमंगादि मन्यमानो निरस्तधीः । जन्ममृत्युजरावर्ते बंभ्रमीति भवोदधौ ॥ ७८ आत्मनो देहतोऽन्यत्वं चिन्तनीयं मनीषिणा । शरीरभारमोक्षाय सायकस्येव कोशतः । ७९ या देहात्मैकताबुद्धिः सा मज्जयति संसृतौ । सा प्रापयति निर्वाणं या देहात्मविभेदधीः ।। ८० यः शरीरात्मनोरैक्यं सर्वथा प्रतिपद्यते । पृथक्त्वशेमुषी तस्य गूथमाणिक्ययोः कथम् ॥ ८१
तभी उसके शुद्धध्यान माना गया है ।। ६९ ।। राग द्वेष मद क्रोध लोभ काम विकार और मत्सर भाव जिस पुरुष के मन में नहीं होते हैं, उसके ध्यान की योग्यता होती है ।। ७० ।। राग-द्वेषादिकसे विक्षिप्त हुए मनकी स्थिरता चलायमान हो जाती है । जैसे कि देदीप्यमान अग्निसे सोनेकी कठिनता भी पिघल जाती है ।। ७१ ॥ मनमें कषायके विद्यमान रहने पर स्थिरता कैसे संभव है ? प्रलयकालके पवन द्वारा उडाये गये तृण स्थिरताको कहां पा सकते हैं ।। ७२ ।। जिन्होंने अक्षय केवलज्ञानके द्वारा सर्व चर-अचर जगत् को देख लिया है, जो अनन्त बल और सुखके धारक हैं अमूर्त हैं, उपद्रव रहित हैं, जिन्होंने सर्व कर्मोंके सम्बन्धको दूर कर दिया है, सूक्ष्म स्वरूपी हैं, नित्य हैं और कर्मोंके आस्रवसे सर्वथा रहित हैं, ऐसे सिद्ध परमात्माका ध्यान करनेवाले जीवके कर्मोंकी निर्जरा होती है ।। ७३-७४ ।। आत्माके द्वारा आत्माको ध्याता हुआ यह आत्मा निर्वृत्त होता हुआ स्वयं सिद्धपरमात्मा बन जाता है । जैसे कि अपने आपसे घर्षणको प्राप्त हुआ वृक्ष अग्नि बन जाता है ।। ७५ ।। जो पुरुष देहादिकसे अपने आपको भिन्न नहीं देखता है, वह मुनि, लिंग में स्थित हो करके भी इस दुस्तर संसार-समुद्र में डूबता है ।। ७३ ।। जो अज्ञानी जीव अचेतनको चेतन मानता है, विनश्वरको अविनश्वर मानता है, परायेको अपना मानता है, दुःखके कारणको सुखदायी मानता है और शरीर - रागादि अनेक विभिन्न पदार्थोंको एक मानता है, वह जन्म-जरा, मरणरूप भंवर वाले संसार-समुद्र में चिरकाल तक परिभ्रमण करता है ।। ७७-७८ ।। इसलिए शरीरके भारसे मुक्ति पानेके लिए ज्ञानी जनोंको तरकस से बाणके समान देहसे आत्माकी भिन्नताका चितवन करना चाहिए । ७९ ।। देहमें जो आत्माके एकत्वकी बुद्धि है, वह संसार में डुबाती है और देसे आत्मा भिन्नत्वकी जो बुद्धि है, वह निर्वाणको प्राप्त कराती है ॥ ८० ॥
जो जीव शरीर और आत्मामें सर्वथा एकपना मानते हैं, उनके विष्टा और माणिकमें भिन्नपकी बुद्धि केसे हो सकती है ? भावार्थ-आत्मा तो माणिक रत्न के समान पवित्र है और शरीर विष्टाके समान अपवित्र है । जो विष्टामें पडें रत्नके समान शरीरमें अवरुद्ध चेतन आत्मारामको एक माने, उन मिथ्या दृष्टि जीवोंका कल्याण कहाँ संभव है ।। ८१ ।। जैसे नेत्रका विषय
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