________________
४१६
श्रावकाचार-संग्रह देहचेतनयोर्भेदो भिन्नज्ञानोपलब्धितः । सर्वदा विदुषा ज्ञेयश्चक्षुःघ्राणार्थयोरिव ।। ८२ न यस्य हानितो हानिर्न वृद्धिवृद्धितो भवेत् । जीवस्य सह देहेन तेनैकत्वं कुतस्तनम् ॥ ८३ तत्वतः सह देहेन यस्य नानात्वमात्मनः । कि देहयोगजस्तस्य सहैकत्वं सुतादिभिः ।। ८३ ममत्वधिषणा येषां पुत्रमित्रादिगोचरा । साऽऽत्मरूपपरिच्छेदच्छेदिनी मोहकल्पिता ।। ८५ पत्तनं काननं सौधमेषाऽनात्मधियां मतिः । निवासो दृष्टवानामात्मैवास्त्यक्षयोऽमलः ॥ ८६
शुद्धस्य जीवस्य निरस्तमत्तः सर्व विकाराः परकर्मजन्याः । मेघादिजन्या व तिग्मरमेविनश्वरा: संत्ति विभास्वरस्य 120 दृष्टात्मतत्त्वो द्रविणादिलक्ष्मी न मन्यते कर्मभवां स्वकीयाम् । विपक्षलक्ष्मी भवने विवेकी प्रपद्यते चेतसि कः स्वकीयाम् ।। ८८ ज्ञानदर्शनमयं निरामयं मृत्युसंभवविकारजितम् । आमनन्ति सुधियोऽत्र चेतनं सूक्ष्ममव्ययमपास्तकल्मषम् ।। ८९ विग्रहं कृमिनिकायसंकुलं दुःखदं हृदि विचितयंति ये। गुप्तिबद्धमिव ते सचेतनं मोचयन्ति तनुयन्त्रमन्त्रितम् ।। ९० स्थित्वा प्रदेश विगतोपसर्गे पयंकबंधस्थितपाणिपद्मः
नासाग्रसंस्थापितदृष्टिपातो मन्दीकृतोच्छ्वासविवृद्धवेगः ॥ ९१ रूप और घ्राणका विषय गन्ध ये दोनों भिन्न-भिन्न हैं, इसी प्रकार भिन्न-भिन्न ज्ञानकी उपलब्धि होनेसे शरीर और चेतन आत्माका भेद भी विद्वानको सदा ही जानना चाहिए ॥ ८२ ।। जिस शरीरकी हानिसे जीवकी कोई हानि नहीं होती और जिस शरीरकी वृद्धिसे जीवकी कोई वृद्धि नहीं होती है, उस जीवका देहके साथ एकपना कैसे हो सकता है ।। ८३ ।। तात्त्विकरूपसे जिस आत्माका देहके साथ भिन्नपना है, उसका देहके संयोगसे उत्पन्न हुए पुत्रादिके साथ एकपना कैसे हो सकता है ।। ८४ ।। जिन जीवोंके पुत्र-मित्रादि-विषयक ममत्व बुद्धि लग रही है, वह मोहकर्मकल्पित है और आत्माके ज्ञानस्वरूपको छेदने वाली है ।। ८५ ।। मेरा निवास नगर है, वन है और भवन है, ऐसी बुद्धि आत्म-ज्ञानसे रहित मिथ्यादृष्टि जीवोंके होती है । किन्तु जिन्होंने वस्तु-स्वरूपको जाना है, ऐसे आत्मदर्शी ज्ञानियोंका निवास तो अक्षय निर्मल आत्मा ही है ।। ८६ ।। अमूर्त शुद्ध जीवके राग-द्वेषादि सभी विकार भाव कर्मोदय-जनित हैं। जैसे कि प्रकाशमान सूर्यके मेघादि-जनित विनश्वर विभाव देखे जाते हैं ।। ८७ ।। जिन पुरुषने आत्मतत्त्वको जाना है, वह कर्म-जनित धनादिसम्पदाको अपनी नहीं मानता है । लोकमें एसा कौन विवेकी पुरुष है जो अपने शत्रुकी लक्ष्मीको मनमें अपनी समझता हो ।। ८८ ।। ज्ञानीजन तो जन्म मरण आदि विकरोंसे रहित, निरामय, सूक्ष्म, अव्यय और कर्ममल रहित ज्ञान दर्शनमयी शुद्ध चेतनको ही अपना मानते हैं ।। ८९ ।। जो ज्ञानी पुरुष अपने मन में शरीरको कृमिजालसे भरा हुआ और दुखोंका देनेवाला चिन्तवन करते हैं, वे शरीररूप यन्त्रसे बंधे हुए सचेतन आत्मारामको गुप्त बन्धनसे बंधे हुए किसी. पुरुषके समान छुडाते हैं ।। ९० ।।
मनीषी पुरुषी उपसर्ग-रहित किसी एकान्त प्रदेशमें जा कर, पद्मासनसे बैठकर, हस्त कमलको उस पर रख कर, अपनी दृष्टिको नासाके अग्रभाग पर स्थापित कर, श्वासोच्छ्वास के बढे हुए वेगको मन्द कर, चंचल स्वभाववाले मनको वश में कर, इन्द्रियोंकी विषय-प्रवृत्तिको जीतकर और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org