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श्रावकाचार-संग्रह
जातदेहात्मविभ्रान्तरेषा भवति कल्पना । विवेकं पश्यतः पुंसो न पुनर्देहदेहिनोः ॥ ६० शत्रुमित्रपितभ्रातमातकान्तासुतावयः । देहसम्बन्धतः सन्ति न जीवस्य निसर्गजाः ।। ६१ श्वाभ्रस्तिर्यङनरो देवो भवामीति विकल्पना। श्वाभ्रतियङनदेवाङ्ग सङ्गतो न स्वभावतः ।। ६२ बालकोऽहं कुमारोऽहं तरुणोऽहमहं जरी । एता देहपरीणामजनिताः सन्ति कल्पनाः । ६३ ।। विदग्धः पण्डितो मूर्यो दरिद्रः साधनोऽधनः । कोपनोऽसूयको मूढो द्विष्टस्तुष्टोऽशठः शठः ॥ ६४ सज्जनो दुर्जनो दीनो लब्धो मत्तोऽपमानितः । जातचित्तात्मसम्भ्रान्ते रेषा भवति शेमषी ।। ६५ देहे यात्ममतिर्जन्तोः सा वर्द्धयति संसृतिम् । आत्मन्यात्ममतिर्या सा सद्यो नयति निर्वृतिम् ॥६६ योजागाऽऽत्मनः कार्ये कायकार्य स मञ्चति । यः स्वपित्यात्मनः कार्ये कायकायं करोति सः॥६७ ममेदमहमस्यास्मि स्वामी देहादिवस्तुनः । यावदेषा मतिर्बाह्ये तावद्धयानं कुतस्तनम् ।। ६८ स्माको त्याज्य कहा है, सो यह विरोध कैसा ? ऐसी शंका नहीं करना चाहिए । कारण कि यहां पर चेतनके विकार रूप मन, राग-द्वेषादिकको आत्मस्वरूप माननेवालेके लिए अन्तरात्मा कहा गया है, सो वह त्यागने योग्य ही है। जहां पर 'सम्यग्दृष्टिको अन्तरात्मा कहा गया है, वह उपादेय ही है, ऐसा विवक्षाभेद जानना । अब बहिरात्माका स्वरूप कहते हैं-जो अपने को में काला हूं मैं गोरा हूँ, मैं पतला हूं, में मोटा हूं. मैं काणा हूँ, मैं विकलांग हूं, मैं निर्बल हूं, मैं सबल हूं, मैं स्त्री हू, मैं पुरुष हूँ में नपुंसक हूं, मैं कुरूप हूं, मैं रूपवान हूं, इस प्रकार शरीरमें आत्माकी भ्रान्तिवाले जिस पुरुषकी कल्पना होती है और जिसे देह और देही (जीव) का भेद दिखाई नहीं देता, उसे बहिरात्मा कहते हैं । किन्तु जिसे देह और देहीका भेद दिखाई देता हैं, ऐसे सम्यग्दृष्टि पुरुषको उक्त प्रकारकी कल्पना नहीं होती है । ५९-६९ ।। यह शत्रु है, यह मित्र है, यह पिता है, यह भाई है, यह माता है, यह स्त्री है और ये पुत्रादिक हैं, ऐसी कल्पनाएं देहके सम्बन्धसे जीवकी होती हैं, किन्तु ये शत्रु-मित्रादिकके सम्बन्ध स्वभाव-जनित नहीं हैं ।। ६१ ।। मैं नारकी हूं, मैं तिर्यच हू, मैं मनुष्य हूं और मैं देव हूं, यह कल्पना नारकी, तियं च, मनुष्य और देवगतिके शरीरके संगसे होती है, स्वभावसे नहीं है ।। ६२ ।। मैं बालक हूं, मैं कुमार हूं मैं जवान हूं, मैं बूढा हूं, ये सब कल्पनाएं देहके परिवर्तन से उत्पन्न होती हैं, ।। ६३ ।। मैं चतुर हूं, विद्वान् हूं, मूर्ख हूं, दरिद्र हूं, धनिक हूँ, निर्धन हू, क्रोधी हूं, ईर्ष्यालु हू, द्वेषी हूं, सन्तुष्ट हूं, ज्ञानी हूं, अज्ञानी हूं, सज्जन हूं, दुर्जन हूं, दीन हूं, लोभी हूं, उन्मत्त हू, अपमानित हूं, ऐसी बुद्धिरूप कल्पना चित्तमें आत्माकी भ्रान्तिवाले पुरुषके होती है ॥ ६४-६५ ।।
__ जीवको शरीरमें जो आत्मबुद्धि होती है, वह संसारको बढाती है । किन्तु आत्मामें जो आत्मबुद्धि होती है, वह शीघ्र ही मुक्तिको ले जाती है ।। ६६ ।। जो पुरुष आत्माके कार्यमें जागता है, वह शरीरके कार्यको छोडता है। किन्तु जो आत्माके कार्यमें सोता है, वह शरीरके कार्यको करता है ॥ ६७ ।। जब तक 'यह मेरा है' और 'मैं इसका स्वामी हूं' ऐसी बुद्धि बाहिरी देहादि वस्तुमें लगी रहेगी, तब तक ध्यान कहांसे हो सकता है ? अर्थात् देहादिक परपदार्थमें आत्मबुद्धि बनी रहने तक तो आत-रौद्र ध्याय ही होंगे 'शुद्ध ध्यान कहांसे संभव है ।। ६८ ॥ 'मैं किसीका नहीं हूं, और न कोई बाहरी पदार्थ मेरा है, ऐसी बुद्धि जब साधकके प्रकट होती है,
१. मु०-'नृवेषाङ्गलिङ्गतो' पाठ ।
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