Book Title: Shravakachar Sangraha Part 1
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 444
________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४२५ परिणामजुदो जीवो गइगमणुवलंभओ असंदेहो । तह पुग्गलो य पाहणपहुइ-परिणामसणा गाउं ।। २६ ।। बंजणपरिणइविरहा धम्मादीआ हवे अपरिणामा। अत्थपरिणाममासिय सम्वे परिणामिणो अत्था ।। २७ ।। जीवो हु जीवदव्वं एक्कं चिय चेयणाच्या सेसा ।। मुत्तं पुग्गलदव्वं रूवादिविलोयणा ण सेसाणि ।। २८ ।। सपएस पंच कालं मुत्तूण पएससंचया णेया । अपएसी खलु कालो पएसबंधच्चुदो जम्हा ॥ २९ मागासा एगसरूवा पएसअविओगा। ववहारकाल-पग्गल-जीवा है अणेयरूवा ले ॥३० आगासमेव खित्तं अवगाहणलक्खणं जदो भणियं । सेसाणि पुणोऽखितं अवगाहणलक्खणाभावा ।। ३१ 'सक्किरिय जीव-पुग्गल गमणागमणाइ-किरियउवलंभा। सेसाणि पुण वियाणसु किरियाहीणाणि तदभावा ।। ३२ मुत्ता' जीवं कायं णिच्चा सेसा पयासिया समये । वंजणपरिणामचुया इयरे तं परिणयं पत्ता ३३ शब्दसे नहीं कही जा सकती हैं और क्षण-क्षणमें बदलती हैं । किन्तु व्यंजनपर्याय स्थूल है, शब्दगोचर हैं अर्थात् शब्दसे कही जा सकती हैं और चिरस्थायी हैं ।। २५ ।। जीव परिणामयुक्त अर्थात् परिणामी है, क्योंकि उकसा स्वर्ग, नरक आदि गतियोंमें निःसन्देह गमन पाया जाता है। इसी प्रकार पाषाण, मिटो आदि स्थल पर्यायोंके परिणमन देखे जानेसे पदगलको परिणामी जानना चाहिए ।। २६ ।। धर्मादिक अर्थात् धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल, ये चार द्रव्य व्यंजनपर्यायके अभावसे अपरिणामी कहलाते हैं। किन्तु अर्थपर्यायकी अपेक्षा सभी पदार्थ परिणामी माने जाते हैं, क्योंकि अर्थपर्याय सभी द्रव्यों में होती हैं ।। २७ ।। एक जीवद्रव्य ही जीवत्व धर्मसे युक्त है, और शेष सभी द्रव्य चेतनासे रहित हैं। एक पुद्गलद्रव्य ही मत्तिक है, क्योंकि, उसीमें ही रूप, रसादिक देखे जाते हैं । शेष समस्त द्रव्य अमूर्तिक हैं, क्योंकि, उनमें रूपादिक नहीं देखे जाते हैं ।। २८ ।। ___कालद्रव्यको छोडकर शेष पाँच द्रव्य सप्रदेशी जानना चाहिए; क्योंकि उनमें प्रदेशोंका संचय पाया जाता है । कालद्रव्य अप्रदेशी है, क्योंकि, वह प्रदेशोंके बंध या समूहसे रहित है, अर्थात् कालद्रव्यके कालाणु भिन्न-भिन्न ही रहते हैं ।। २९ ।। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश, ये तीनों द्रव्य एक-स्वरूप हैं, अर्थात् अपने स्वरूप या आकारको बदलते नहीं हैं, क्योंकि इन तीनों द्रव्योंके प्रदेश परस्पर अवियुक्त हैं, अर्थात् समस्त लोकाकाशमें व्याप्त हैं । व्यवहारकाल, पुद्गल और जीव, ये तीन द्रव्य अनेकस्वरूप हैं, अर्थात् वे अनेक रूप धारण करते हैं ।३०।। एक आकाशद्रव्य ही क्षेत्रवान है, क्योंकि, उसका अवगाहन लक्षण कहा गया है। शेष पांच द्रव्य क्षेत्रवान् नहीं है, क्योंकि उनमें अवगाहन लक्षण नहीं पाया जाता है ।। ३१॥ जीव और पुद्गल ये दो क्रियावान् हैं, क्योंकि इनमें गमन, आगमन आदि क्रियाएँ पाई जाती हैं । शेष चार द्रव्य क्रिया-रहित हैं, क्योंकि उनमें हलन-चलन आदि क्रियाएँ नहीं पाई जाती हैं ।। ३२ ।। जीव और पुद्गल, इन दो द्रव्योंको छोडकर शेष चारों द्रव्योंको परमागममें नित्य कहा गया है, क्योंकि उनमें व्यंजन-पर्याय नहीं पाई जाती हैं । जीव और पुद्गल, इन दो द्रव्यों में व्यंजन-पर्याय पाई जाती हैं, इसलिए वे १ ध ‘सक्किरिया पुणु जीवा पुग्गल गमणाए'। २ झ. मोत्तूं. ब. मोत्तूं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526