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श्रावकाचार-संग्रह
सम्यक्त्व के आठ अङ्ग
णिस्संका णिक्कखा' निव्विदिगिच्छा अमूढदिट्ठी य । उवगूहण ठिदियरणं वच्छल्ल पहावणा चेव ।। ४८ ।।
संवेओ जिओ निदा गरहा? उवसमो भत्ती । 'वच्छल्लं अणुकंपा अट्ठ गुणा हुंति सम्मत्ते । ४९ ॥ पाठान्तर - पूया अदण्णजणणं' अरुहाईणं पयत्तेण ॥ इच्चाइगुणा बहवो सम्मत्तविसोहिकारया भणिया । जो उज्जमेदि एसु" सम्माइट्ठी जिणक्खादो ॥ ५० ॥
काइदोरहिओ निस्संकाइगुणजयं परमं । कम्मणिज्जरणहेऊ तं सुद्धं होइ सम्मत्तं ॥ ५१ ॥
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अङ्गों में प्रसिद्ध होनेवालोंके नाम
रायगिहे निस्संको चोरो णामेण अंजणो भणिओ। चंपाए णिक्कंखा वणिगसुदा णंतमइणामा ।। ५२ निविदिगिच्छो राओ उद्दायणु णाम रुइवरणयरे । रेवइ महरा णयरे अमूढदिट्ठी मुणेयव्वा ।। ५३ ठिदियरणगुणपउत्तो मागहणय रम्हि वारिसेणो दु । हथणापुर म्हि णयरे वच्छल्लं विण्हुणा रइयं ।। ५४ उवगूहणजुतो जिणयत्तो तामलित्तणयरीए । वज्जकुमारेण कथा पहावणा चैव महुराए" ।। ५७
निःशंका, निःकांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना, ये सम्यक्त्वके आठ अंग होते हैं ॥ ४८ ॥ सम्यग्दर्शन होनेपर संवेग, निर्वेग, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा ये आठ गुण उत्पन्न होते हैं ।। ४९ ।। ( पाठान्तरका अर्थ - अर्हतादिककी पूजा और गुणस्मरणपूर्वक निर्दोष स्तुति प्रयत्न पूर्वक करना चाहिये ।) उपर्युक्त आदि अनेक गुण सम्यग्दर्शनकी विशुद्धि करनेवाले कहे गये हैं । जो जीव इन गुणोंकी प्राप्ति में उद्यम करता है, उसे जिनेन्द्रदेवने सम्यग्दृष्टि कहा है ।। ५० ।। जो शंकादि दोषोंसे रहित है, नि:शंक परम गुणोंसे युक्त है और कर्म- निर्जराका कारण है वह निर्मल सम्यग्दर्शन हैं ।। ५१ ।। राजगृह नगरमें अंजन नामक चोर निःशंकित अंग में प्रसिद्ध कहा गया है । चम्पानगरी में अनन्तमती नामकी afaaiपुत्री निःकांक्षित अंग में प्रसिद्ध हुई । रुचिवर नगर में उद्दायन नामक राजा निर्विचिकित्सा अंग में प्रसिद्ध हुआ । मथुरानगरमें रेवती रानी अमूढदृष्टि अंग में प्रसिद्ध जानना चाहिये । मागधनगर ( राजगृह ) में वरिषेण नामक राजकुमार स्थितिकरण गुणको प्राप्त हुआ । हस्तिनापूर नामके नगर में विष्णुकुमार मुनिने वात्सल्य अंग प्रकट किया है। ताम्रलिप्तनगरी में जिनदत्त सेठ उपगूहन गुणसे युक्त प्रसिद्ध हुआ है और मथुरा नगरी में वज्रकुमारने प्रभावना अंग प्रकट किया है ।। ५२-५५ ।। जो जीव दृढचित्त होकर जीवादिक पदार्थों का श्रद्धान करता हुआ उपर्युक्त इन आठ गुणोंसे युक्त सम्यक्त्व को धारण करता है, वह सम्यग्दृष्टि कहलाता है ।। ५६ ।। सम्यग्दर्शन से विशुद्ध है बुद्धि जिसकी, ऐसा जो जीव पाँच उदुम्बरफल सहित सातों ही व्यसनोंका त्याग करता
१ इ. झ. 'णिस्संकियनिक्कंखिय' इति पाठः । २ झ. गरुहा । ३ झ. ध. प. प्रतिषु गाथोत्तरास्यायं पाठः 'पूया अवण्णजणणं अरुहाईणं' । ४ अदोषोद्भावनम् । ५ झ. 'ए' ।
झ प्रती पाठोऽयमधिक:- 'अतो गाथाषट्कं भावसंग्रहग्रन्थातृ । + भाव सं० गा० २८० - २८३ ।
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