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अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
ग्रन्थकर्तुः प्रशास्तः
अभूत्समो यस्य न तेजसेनः स शुद्धबोधोऽजनि देवसेनः । मनीश्वरो निजितकर्मसेनः पादारविन्दप्रणतेन्द्रसेनः ।। १ दोषान्धकारपरिमर्दन बद्धकक्षो भूतस्ततोऽमितगतिर्भुवनप्रकाशः ॥ तिग्मधुतेरिव दिन: कमलाव बोधी मार्गप्रबोधनपरो बुधपूजनीयः ॥ २ विद्वत्समूहाचित चित्रशिष्यः श्रीनेमिषेणोऽजनि तस्य शिष्यः । श्रीमाथुरानूकनभः शशाङ्कः सदा विधूताऽऽर्हततत्त्वशङ्कः ॥ ३ माधवसेनोऽजनि महनीयः संयतनाथो जगति जनीयः । जीवनराशेरिव मणिराशी रम्यतमोडतोखिलतिमिराशी ॥। ४ विजितना कि निकाय मवज्ञया जयति यो मदनं पुरुविक्रमम् । त्यजति मा किमयं परनाशधीरिति कषायगणो विगतो यतः ।। ५ तस्मादजायत नयादिव साधुवादः शिष्टाचतोऽमितगतिर्जगति प्रतीतः । विज्ञातलौकिक हिताहित कृत्यवृत्तेराचार्यवर्यपदवीं दधतः पवित्राम् ।। ६ अयं तडित्वानिव वर्षणं धनो रजोपहारी धिषणापरिष्कृतः । उपासकाचारमिमं महामनाः परोपकाराय महन्नतोऽकृत ॥ ७
जिनके चरणारविन्दोंमें इन्द्रोंकी सेना नम्रीभूत है, जिन्होंने कर्मों की सेनाको जीता है और जो शुद्ध ज्ञानके धारक हैं, ऐसे देवसेन मुनिराज इस कालमें हुए। जिनके तेजको समता सूर्य भी नहीं कर सकता था ।। १ ।। उन देवसेनके शिष्य अमितगति हुए जो कि सूर्य के समान दोषरूप अथवा दोषा (रात्रि) रूप अन्धकारके परिमर्दन करनेमें कमर कसे हुए थे, समस्त भुवनके प्रकाशक थे, भव्यरूप कमलों को प्रबुद्ध कर उन्हें सन्मार्गका ज्ञान करानेवाले थे और ज्ञानियोंके द्वारा पूजनीय थे ।। २ ।। उनके शिष्य श्री नेमिषेण हुए जिनके अनेक शिष्य विद्वद्वृन्दसे पूजित थे, जो श्री माथुर सम्प्रदायरूप आकाशको प्रकाशित करनेवाले चन्द्रमाके समान थे और जो सदा ही जैनमतप्रतिपादित तत्त्वों में शंकाएं उठानेवालोंका भलीभांति से निराकरण करते थे || ३ || नेमिषेण शिष्य माधवसेन हुए, जो कि महान् पूज्य थे, साधुओंके स्वामी थे, और जगज्जनोंके परम हितैषी थे। जैसे जल - राशि (समुद्र) से अतिरमणीय मणिराशि उत्पन्न होती है और जैसे क्षीरसागर से सर्वलोक का अन्धकारनाशक चन्द्रमा प्रकट हुआ माना जाता है, उसी प्रकार श्री नेमिषेणसे उनके शिष्य माधवसेन प्रकट हुए ।।४।। जिसने देव समूहके जीतने वाले कामदेवको भी तिरस्कार करके जीत लिया है, जो महान पराक्रमी है पर ( शत्रु) पक्षके नाश करनेमें जिसकी बुद्धि लग रही है ऐसा माधवसेन मुझे क्यों छोड़ेगा, यह सोचकर ही मानों कषायोंका समूह उनसे दूर भाग गया । अर्थात् वे माधवसेन काम-जयी और कषायरहित थे ।। ५ ।। जैसे न्यायनीतिसे साधुवाद प्रकट होता है, उसी प्रकार लौकिक हित-अहितरूप कर्तव्यों के ज्ञाता, और पवित्र आचार्य पदवीके धारक उन माधवसेनसे इिष्टजनों के द्वारा पूजित और जगत् में प्रसिद्ध में अमितगति हुआ ।। ६ ।। जैसे बिजलीयुक्त मेघ जलकी वर्षा करके जगत्की रजको दूर करता है, उसी प्रकार बुद्धि से परिष्कृत, महामना और महोदयवाले इस अमितगतिने भव्य जीवोंके उपकारके लिए इस उपासकाचार ( श्रावकाचार ) को बनाया ।। ७ ।। इस ग्रन्थ में जो सिद्धान्त-विरुद्ध कहा गया है, वह ज्ञानीजनोंको संशोधन करके
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