________________
अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
४१७
विधाय वश्यं चपलस्वभावं मनो मनीषी विजिताक्षवृत्तिः । विमक्तये ध्यायति ध्वस्तदोषं विविक्तमात्मानमनन्यचित्तः ।। ९२ अभ्यस्यतो ध्यानमनन्यवृत्तरित्थं विधानेन निरन्तरायम् । व्यपैति पापं भवकोटिबद्ध महाशमस्येव कषायजालम् ।। ९३ ध्यानं पटिष्टन विधीयमानं कर्माणि भस्मीकुरुते विशुद्धम् । कि प्रेर्यमाणः पवनेन नाग्निश्चितानि सद्यो दहतींधनानि ।। ९४ त्यागेन होनस्य कुतोऽस्ति कत्तिः सत्येन होनस्य कुतोऽस्ति पूजा। न्यायेन हीनस्य कुतोऽस्ति लक्ष्मी ध्यानेन होनस्य कुतोऽस्ति सिद्धिः ॥ ९५
तपांसि रौद्राण्यनिशं विधत्तां शास्त्राण्यधींतामखिलानि नित्यम् । धत्तां चरित्राणि निरस्ततन्द्रो न सिध्यति ध्यानमृते तथापि । ९६ ध्यानं यहहाय ददाति सिद्धि न तस्य खेदः परशर्मदाने । क्षयानलं हन्ति यदभ्रवृन्दं न तस्य खेदः परवन्हिघाते । ९७ तपोऽन्तरानन्तरभेदभिन्ने तपोविधाने द्विविधे कदाचित् । समस्तकर्मक्षपणे समर्थ ध्यानेन शुद्धेन समं न दृष्टम् ।। ९८ ध्यानस्य दृष्ट-वेति फलं विशालं मुमुक्षुणाऽऽलस्यमपास्य कार्यम् । कार्ये प्रमाद्यति न शक्तिमन्तो विलोकमानाः फलभूरिलाभम् ॥ ९९ तपोविधानर्बहजन्मलक्षयों दद्यते संचितकर्मराशिः। क्षणेन स ध्यानहुताशनेन प्रवर्त्तमानेन विनिर्मलेन ॥ १०० एकाग्रचित्त होकर सर्व दोष-रहित अपनी एक मात्र निर्मल आत्माका ध्यान करता है ॥ ९१-९२ ।। इस प्रकार पूर्वोक्त विधान से निरन्तराय ध्यानका अभ्यास करने वाले एकाग्रचित्त पुरुषके कोटि भवोंके बँधे पाप नष्ट हो जाते हैं जैसे कि महान् प्रशमभावके धारकके कयायोंका समूह नष्ट हो जाता है ।। ९३ ।। चतुर ज्ञानी पुरुषके द्वारा किया गया निर्मल ध्यान कर्मोको भस्म कर देता है । पवनके द्वारा प्रेरणाको प्राप्त अग्नि संचित ईंधनको क्या शीघ्र नहीं जला देती है ।। ९४ ।। दानसे हीन पुरुषकी कीर्ति कैसे संभव है ? सत्यसे रहित मनुष्यकी पूजा कैसे हो सकती है ? न्यायसे रहित पुरुषको लक्ष्मी कैसे प्राप्त हो सकती है और ध्यानसे रहित पुरुषको सिद्धि (मक्ति) कैसे मिल सकती है ? अर्थात् नहीं मिल सकती है ।। ९५ । भले ही कोई पुरुष निरन्तर भयंकर तपोंको करे, भले ही कोई सदा समस्त शास्त्रोंको पढ और भले ही कोई मनुष्य आलस्य-रहित होकर चरित्र धारण करे, तथापि ध्यानके विना वह सिद्धि को नहीं पाता है । अर्थात् सभी धर्म-कार्योंमें ध्यान प्रधान है ।। ९६ ॥ जो ध्यान शीघ्र सिद्धिको प्रधान करता है, अर्थात् परम अतीन्द्रिय शिव-सुखको देता है, उसको इद्रियज सांसारिक सुखके देने में क्या खेद हो सकता है ? जो मेघ-समूह प्रलयाग्निका नाश करता है, उसे अन्य अग्निके बुझाने में कोई खेद नहीं होता है ।। ९७ ।। अन्तरंग और बाह्य तपके भेदसे भिन्न दो प्रकारके तपोविधान में समस्त कर्मोंके क्षय करने में समर्थ शद्धध्यानकेसमान अन्य तप नहीं देखा गया है ।। ९८ ।। इस प्रकार ध्यानके विशाल फलको देखकर मुमुक्षु पुरुषको आलस्य छोडकर ध्यान करना चाहिए क्योंकि शक्तिशाली पुरुष भारी फलका लाभ देखते हुए अपने अभीष्ट कार्यमें प्रमाद नहीं करते हैं ।। ९९ ।। अनेकों लाखों जन्मों में किये गये नाना प्रकरके
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.