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अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
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देशजातिकुलरूपकल्पताजीवितव्यबलवीर्यसम्पदः । देशनाग्रहणबुद्धिधारणाः सन्ति देहिनिवहस्य दुर्लभाः ।। ६९ हन्त तासु सुखदानकोविदा ज्ञानदर्शनचरित्रसङ्गतिः । लभ्यते तनुभताऽतिकृच्छतः कामिनीष्विव कृतज्ञता सती ।। ७० साधुलोकमहिता प्रमादतो बोधिरत्र यदि जातु नश्यति । प्राप्यते न भविना तदा पुन!रधाविव मनोरमो मणिः ॥ ७१ हन्त बोधिमपहाय शर्मणे योऽधमो वितनुते धनार्जनम् । जीविताय विषवल्लरी स्फुटं सेवतेऽमृतलतामपास्य सः ।। ७२ योऽत्र धर्ममुपलभ्य मुञ्चते क्लेशमेष लभतेऽतिदारुणम् । यो निधानमनघं व्यपोहते खिद्यते स नितरां किमद्भुतम् ॥ ७३ मुञ्चता जननमृत्युयातनां गृह्यता च शिवतातिमुत्तमाम् । शाश्वती मतिमता विधीयते बोधिरद्रिपतिचूलिका स्थिरा ।। ७४ निरुपमनिरवद्यशर्ममूलं हितमभिपूजितमस्तसर्वदोषम् । भजति जिननिवेदितं स धर्म भजति जनः सुखभाजनं सदा यः ।। ७५ व्यपनयति भवं दुरन्तदुःखं वितरति मुक्तिपदं निरामयं यः ।।
भवति कृतधिया त्रिधा विधेयः सकलसमीहितसाधनः स धर्मः ॥ ७६ ___ अब बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा कहते हैं-धर्म-धारण करनके योग्य देश जाति कुल रूप सौन्दर्य दीर्घायु बल वीर्य सम्पदा, जिनवाणीका उपदेश, उसके ग्रहण करनेकी बुद्धि और उसे धारण करनेकी शक्ति इतनी बातोंका मिलना जीव-समुदायको उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं ।। ६९ ।। आचार्य खेद प्रकट करते हुए कहते हैं कि उपर्युक्त सामग्रीमें भी सुख देने में प्रवीण ऐसी सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्रकी संगति यह प्राणी अति कष्टसे प्राप्त करता है, जैसे कि स्त्रियोंमें सुन्दर कृतज्ञता अति कष्टसे पाई जाती है ॥७०॥ इस लोकमें साधुजनोंसे पूजित रत्नत्रयकी प्राप्तिरूप यह बोधि यदि कदाचित् प्रमादसे नष्ट हो जाती है, तो वह फिर संसारी जीवको नहीं प्राप्त होती है। जैसे कि समुद्र में गिरा हुआ मनोहर मणि पुनः नहीं प्राप्त होता हैं ।।७१॥ यह बडे दुःखकी बात है कि ऐसी अतिदुर्लभ बोधिको पाकरके भी जो अधम पुरुष उसे छोडकर सुख के लिए धनका उपार्जन करता है, वह अमृतलताको छोडकर जीवित रहने के लिए नियमसे विषवेलिका सेवन करता है ॥७२॥ जो मनुष्य इस भवमें ऐस उत्तम धर्मको पाकरके छोडता है, वह अतिदारुण क्लेशको पाता है । जो निर्दोष धनके भण्डारको छोडता है, वह अत्यन्त खेदित होता है, इसमें क्या आश्चर्य है ।। ७३ ।। जो मतिमान् पुरुष जन्म-मरणकी यातनाको छोडता है और उत्तम कल्याण-परम्पराको ग्रहण करता है, वह सुमेरुको स्थिर चूलिकाके समान रन्नत्रयकी प्राप्तिरूप बोधिको शाश्वत नित्य बनाता है ।। ७४ ।। यह बोधिदुर्लभ भावना कही। .
__ अब धर्मानुप्रेक्षा कहते हैं-जो जीव जिनभाषित, निरुपम, निप्पाप, सुखका मूलकारण हितकारक, जगत्पूजित और सर्व दोषरहित ऐसे जिनधर्मका सेवन करता है, वह जीव सदा ही सुखका भाजन होता है ॥ ७५ ॥ जो धर्म दुरन्त दुःखवाले संसारको दूर करता है और निरामय मुक्तिपदको देता है, ऐसा सर्व मनोरथोंका साधन करनेवाला वह धर्म मनीषी जनको मन वचन
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