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अमितगतिकृतः श्रावकाचार:
कृतानायतनत्यागे परदृष्ट्यविमोहिते । शासनासादनाहीने जिनशासन बृंहके ॥४ सोपानं सिद्धिसौधस्य कल्मषक्षपणक्षमम् । ज्ञानचारित्रयोर्हेतुः स्थिरं तिष्ठति दर्शनम् ॥५ न निरस्यति सम्यक्त्वं जिनशासनभावितः । गृहीतं वन्हिसन्तप्तो लोहपिण्ड इवोदकम् ॥६ दर्शनज्ञानचारित्रतपस्सु विनयं परम् । करोति परमश्रद्धस्तितीर्षुर्भववारिधिम् ॥७ जिनेशानां विमुक्तानामाचार्याणां विपश्चिताम् । साधूनां जिनचैत्यानां जिनराद्धान्तवेदिनाम् ||८ कर्त्तव्या महती भक्तिः सपर्या गुणकीर्तनम् । अपवादतिरस्कारः सम्भ्रमः शुभदृष्टिभिः ||९ आगमाध्ययनं कार्यं कृतकालाविशुद्धिना । विनयारूढचित्तेन बहुमान विधायिना ॥। १० कुर्वताऽवग्रहं योग्यं सूरितिन्हवमोचिना । परमां कुर्वता शुद्धि व्यञ्जनार्थद्वय स्थिताम् ॥११ संयमे संयमाधारे संयमप्रतिपादिनि । आदरं कुर्वतो ज्ञेयश्चारित्रश्नियः परः ।। १२ महातपः स्थिते साधौ तपः कार्ये ससंयमे । भक्तिमात्यन्तिकों प्राहुस्तपसो विनयं बुधाः ॥ १३ सम्यक्त्वचरणज्ञानत पानीमानि जन्मिनाम् । निस्तारणसमर्थानि दुःखोर्मेर्भवनीरधेः ॥ १४ चतुविध 'मिदं साधोः पोष्यमाणमहनिशम् । सिद्धि साधयते सद्यः प्रार्थितां नृपतेरिव ॥ १५ सिषाधयिषते सिद्धि चतुरङ्गमृतेऽत्र यः । स पोतेन विना मूढस्तितीर्षति पयोनिधिम् ।।१६
से रहित दृढ आत्मविश्वासी हो, महान् बुद्धिमान् हो, उत्तम धर्मस्थानोंका सेवक हो, अनायतनों अर्थात् कुधर्मस्थानोंका त्यागी हो, मिथ्यामतोंसे विमोहित न हो, जिनशासनको आसादनासे रहित हो, जिनशासनका बढाने वाला हो, ऐसे पुरुषमें मुक्तिरूप महलके सोपान स्वरूप, ज्ञान चारित्रका हेतु और कर्मों के क्षय करने में समर्थ ऐसा सम्यग्दर्शन स्थिर होकर ठहरता है ।। ३५ ।। जिनशासनकी भली-भाँति से भावना करनेवाला पुरुष सम्यक्त्वको नहीं त्यागता है । जैसे अग्निसे सन्तप्त लोक पिण्ड ग्रहण किये गये जलको नहीं त्यागता हैं || ६ || जो पुरुष श्रद्धालु हैं और संसार सागरसे पार उतरना चाहता है, वह दर्शन ज्ञान चारित्र और तपमें परम विनयको धारण करता है ॥ ७ ॥ जिनेन्द्रदेव, सिद्धपरमेष्ठी, आचार्य, महाज्ञानी उपाध्याय, साधुगण, जिन चैत्य और जिन सिद्धान्तके वेत्ताओंकी महाभक्ति पूजा और गुणस्तुति उत्तम सम्यग्दृष्टियोंको करनी चाहिए। तथा जैन शासन में उठे हुए अपवादका सोत्साह निराकरण करना चाहिए यह दर्शन विनय हैं ।। ८-९ ।। काल आदिको शुद्धिको करके, और चित्तमें विनय भाव धारण करके, बहुत सम्मानको करते हुए, योग्य अवग्रह (प्रतिज्ञा ) करके, अपने गुरुका निन्हव त्याग कर शब्दकी, अर्थकी और दोनोंकी परम शुद्धि को रखते हुए आगमका अध्ययन करना चाहिए। यह ज्ञानविनय है ।। १०-११॥
संयम में, संयम आधारभूत साधुओंमें, सयमके प्रतिपादन करनेवाले आचार्य और उपाध्यायमें परम आदरभाव रखनेवाले पुरुषके चारित्रविनय जानना चाहिए ||१२|| महान्तपमें स्थित साधु और संयम युक्त तपके कार्य में अत्यन्त भक्ति रखनेको ज्ञानियोंने तपकी विनय कहा हैं ।।१३।। ये सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपरूप चार आराध गएँ प्राणियोंको दुःख रूप तरंगोंसे युक्त संसाररूप समुद्रसे पार उतारनेमें समर्थ है || १४ || रात्रि - दिन पोषण की गई ये चार प्रकारकी आराधनाएँ साधुको शीघ्र ही मुक्तिको सिद्ध करती है। जैसे कि भली प्रकार पोषण की गई राजाकी चतुरंग सेना वांछित कार्यको सिद्ध करती हैं ।। १५ ।। जो अज्ञानी पुरुष इस लोक में चार आराधनाओं के विना सिद्धिको साधन करना चाहता हैं, वह जहाज के विना ही समुद्रको तिरना १. मुदृष्टिता । २. मु. चतुरङग - 1
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