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श्रावकाचार-संग्रह
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संधे चतुविधे भक्त्या रत्नत्रितयराजिते । विधातव्यो यथायोग्यं विनयो नयकोविदैः ॥४४ विनयेन विहीनस्य व्रतशीलपुरसराः । निष्फलाः सन्ति निश्शेषा गुणा गुणवतां मताः ॥४५ विनश्यन्ति समस्तानि व्रतानि विनयं विना । सरोरुहाणि तिष्ठन्ति सलिलेन विना कथम् ॥४६ निर्वृतिस्तरसा वश्या विधीयते । आत्मनीनसुखाधारा सौभाग्येनेव कामिनी ॥ ४७ सम्यग्दर्शनचारित्रत पोज्ञानानि देहिना । अवाप्यन्ते विनीतेन यशांसीव विपश्चिता ॥४८ तस्य कल्पद्रुमो भृत्यस्तस्य चिन्तामणिः करे । तस्य सन्निहितो यक्षो विनयो यस्य निर्मलः ॥ ४९ आराध्यन्तेऽखिला येन त्रिदशाः सपुरन्दराः । सङ्घस्याराधनें तस्य विनीतस्यास्ति कः श्रमः ॥५० क्रोधमानादयो दोषाश्छिद्यन्ते येन वैरदाः । न वैरिणो विनीतस्य तस्य सन्ति कथञ्चन ॥ ५१ कालत्रयेsपि ये लोके विद्यन्ते परमेष्ठिनः । तेन विनीतेन निश्शेषाः पूजिता वन्दिताः स्तुताः ॥५२ गर्यो निखर्व्यते तेन जन्यते गुरुगौरवम् । आर्जवं दश्ते स्वस्य विनयं वितनोति यः ||५३ विनयः कारणं मुक्तेविनयः कारणं श्रियः 1 विनयः कारणं प्रीतेविनयः कारणं मतेः ॥ ५५
विनय करना चाहिए। तथा साधुजनोंके परोक्षमें भी उनकी आज्ञाको पालन करना ही हैं लक्षण जिसका ऐसा परोक्ष विनय करना चाहिए ||४३|| नयविशारद जनोंको रत्नत्रयसे विराजित चतुविध संघपर भक्तिके साथ यथायोग्य विनय करना चाहिए। क्योंकि विनयसे रहित पुरुष के व्रत-शीलपूर्वक शेष समस्त गुण निष्फल है, ऐसा गुणीजनों का मत है ।।४४-४५ ।। विनयके विना समस्त व्रत उसी प्रकारसे विनष्ट हो जाते है, जिस जलके विना कमल नष्ट हो जाते है । क्योंकि सरोवर में जलके विना कमल कैसे जीवित रह सकते है ||४६ || जिस प्रकार सौभाग्यके द्वारा कामिनी स्त्री वशमें आजाती है, उसी प्रकार विनयके द्वारा आत्मा के हितरूप सुखकी आधारभूत मुक्तिरूपी स्त्री भी शीघ्र ही अवश्य वश में की जाती हैं ॥४७॥ जैसे विद्वान् पुरुष अपनी विद्वत्ताके द्वारा यशको प्राप्त करता है, उसी प्रकार प्राणीगण भी विनयसे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और ज्ञानको प्राप्त करते हैं || ४८ || जिस पुरुष के पास निर्मल विनय गुण होता है, उसका कल्पवृक्ष दास है, उसके हाथ में चिन्तामणि आ गया है और सर्व कार्यका कर्त्ता यक्ष समीपस्थ हैं, ऐसा जानना चाहिए ।। ४९ । जिस विनीत पुरुष के द्वारा इन्द्र सहित समस्त देवगण आराधना किये जाते है अर्थात् सेवक बन जाते हैं, उस विनीत पुरुषकी संघकी आराधना करनेमें क्या परिश्रम है, अर्थात् कुछ भी नहीं है ।। ५० ।। जिस विनयके द्वारा वैर भावके देने और बढानेवाले क्रोधमान आदिक दोष नाश किये जाते है, उस विनयके धारक विनीत पुरुषके वैरी किसी भी प्रकार नहीं हो सकते हैं ।। ५१ ।।
इस लोक में तीनों कालों में जितने भी परमेष्ठी विद्यमान है, वे सब विनीत पुरुषके द्वारपूजे, वंदे और स्तुति किये गये समझना चाहिए ॥५२॥ । जो मनुष्य विनयका विस्तार करता है. उसके द्वारा गर्वका विनाश किया जाता हैं, गुरुजनोंका गौरव बढाया जाता हैं और अपना सरलभाव प्रकट किया जाता है ।। ५३ ।। विनयवान् पुरुषकी निर्मल कीर्ति महीतलपर अतिशयरूपसे परिभ्रमण करती हैं, अर्थात् सर्व जगत् में फैलती हैं और चन्द्रकी कान्तिके समान जगत् के प्रणियोंको सुख उपजाती हैं || ५४ ॥ विनय मुक्तिका कारण है, विनय लक्ष्मीका कारण है, विनय प्रीति १. मु. प्रश्रयं ।
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