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अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
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परेऽपि ये सन्ति तपोविशेषा जिनेन्द्रचन्द्रोदित सूत्रदृष्टाः । स्वशक्तितस्ते निखिला विधेया विधानतः कर्मनिकर्तनाय ।।९४ सौख्यं स्वस्थं दीयते येन नित्यं रागावेशश्छिद्यते येन सद्यः । येनानन्दो जन्यते याचनीयस्तं सन्तोषं कुर्वते केन भव्याः ।।९५ नेष्टं दातुं कोऽप्युपायः समर्थः सौख्यं नृणामस्ति सन्तोषतोऽन्यः । अम्मोजानां कः प्रबोधं विधातुं शक्तो हित्वा भानुमन्तं न दृष्टः ॥९६ विमच्य सन्तोषमपास्तबद्धिः सुखाय यः काइक्षति कञ्चनान्यम् । दारिद्रयहानाय स कल्पवृक्षं निरस्य गृहाति विषद्रुमं हि ॥९७ क्रोधलोभमदमत्सरशोका धर्महानिपटवः परिहार्याः ।। व्याधयो न सुखघातपटिप्ठा: पोषयन्ति कृतिनः सुखकांक्षाः ॥९८ सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं सक्लिश्यमानेषु कृपापरत्वम्। . मध्यस्थभावो विपरीतवत्तौ सदा विधेयो विदुषा शिवाय ।।९९ अनश्वरश्रीप्रतिबन्धकेषु प्रभूतदोषोपचितेषु नित्यम् ।। विरागमाव: सुधिया विधेयो भवाङ्ग भोगेष विनश्वरेषु ॥१०० श्रावकधर्म भजति विशिष्टं योऽनघचित्तोऽमितगतिदष्टम् । गच्छति सौख्यं विगलितकष्टं स क्षपयित्वा सकलमनिष्टम् ।।१०१
इत्युपासकाचारे त्रयोदशः परिच्छेदः ।। का वर्णन किया। उपर्युक्त वैयावत्य, स्वाध्याय आदिके सिवाय अन्य भी जो तपोविशेष जिनेन्द्रचन्द्रोपदिष्ट आगममें प्रतिपादन किये गये हैं, उन सबको भ अपनी शक्तिके अनुसार कर्मों के काटनेके लिए विधिपूर्वक करना चाहिए ॥९४।। जिसके द्वारा आत्मीय नित्य सुख प्रदान किया जाता है, जिसके द्वारा रागका आवेश शीघ्र छेदा जाता हैं और जिसके द्वारा मनोवांछित आनन्द उत्पन्न होता है, उस सन्तोषको कौन भव्य पुरुष धारण नहीं करते है । अर्थात् ऐसे परम सुख और शान्तिके देनेवाले सन्तोषको धारण करना चाहिए ।।९५॥ मनुष्योंको अभीष्ट सुख देनेके लिए सन्तोषके सिवाय अन्य कोई उपाय समर्थ नहीं हैं। कमलोंको विकसित करने के लिए सूर्यके सिवाय और कौन समर्थ देखा गया हैं ।।९६॥ जो नष्टबुद्धि पुरुष सुख पानेके लिए सन्तोषको छोडकर अन्य काम-भोगादिककी आकांक्षा करता है, वह दरिद्रताको दर करने के लिए कल्पवक्षको छोडकर नियमसे विषवृक्षको ग्रहण करता हैं ।।९।। धर्मकी हानि करने में दक्ष ऐसे क्रोध लोभ मद मत्सर और शोकका परिहार करना चाहिए। क्योंकि सुख के इच्छुक ज्ञानीजन सुख का घात करनेवाली व्याधियोंको पोषण नहीं करते हैं ॥९८ । विद्वानोंको आत्मकल्याणके लिए सदा सर्व प्राणियोंपर मैत्रीभाव, गुणी जनोंपर प्रमोदभाव, दुखी जीवोंपर करुणाभाव और विपरीत दृष्टिवालोंपर माध्यस्थभाव रखना चाहिए ।।९९।। अविनाशो लक्ष्मीके प्रतिबन्धक,अनेक दोषोंसे संयक्त
और विनश्वर ऐसे संसार, शरीर और इन्द्रिय-भोगोंमें ज्ञानीको सदा विरागभाव रखना चाहिए । १००।। इस प्रकार अमितज्ञानी जिनेन्द्रदेवसे उपदिष्ट तथा अमितगति आचार्यसे प्ररूपित ऐसे विशिष्ट श्रावक धर्मको जो निर्मल चित्त पुरुष धारण करता हैं, वह सकल अनिष्ठोंका क्षय करके सर्वं कष्टोंसे रहित ऐसे अविनाशी सुखको प्राप्त होता है ।।११।।
इस प्रकार अमितगति-विरचित श्रावकाचार में तेरहवां परिच्छेद समाप्त हआ।
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