Book Title: Shravakachar Sangraha Part 1
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 391
________________ ३७४ श्रावकाचार-संग्रह रागद्वेषादयो दोषा येषां सन्ति न कर्मजाः । निमित्तरहितं क्वापि न नमित्तं विलोक्यते ॥२० न निर्वृतिममी मुक्त्वा पुनरायान्ति संसृतिम् । शर्मदं हि पदं मुक्त्वा दुःखदं कः प्रपद्यते ॥२१ सुखस्य प्राप्यते येषां न प्रमाणं कथञ्चन । आकाशस्येव नित्यस्य निर्मलस्य गरीयसः ॥२२ पश्यन्ति ये सुखीभूता लोकानशिखरस्थिताः । लोकं कर्मभ्रकुंशेन नाटयमानमनारतम् ।।२३ येषां स्मरणमात्रेण पुंसां पापं पलायते । ते पूज्या न कथं सिद्धा मनोवाक्कायकर्मभिः ।।२४ चारयन्त्यनुमन्यन्ते पञ्चाचारं चरन्ति ये । जनका इव सर्वेषां जीवानां हितकारिणः ॥२५ येषां पादपरामर्शेर्जीवा मुञ्चन्ति पातकम् । निखिलं हिमरश्मीनां चन्द्रकान्तोपला इव ॥२६ उपदेशः स्थिरं येषां चारित्रं क्रियते तराम् । ते पूज्यन्ते त्रिधाऽऽचार्याः पदं वयं यियासुभिः ॥२७ उन्नतेभ्यः ससत्त्वेभ्यो येभ्यो दलितकल्मषाः । जायन्ते पावना विद्या: पर्वतेभ्यः इवापगाः ।।२८ चरन्तः पञ्चधाऽऽचारं भवारण्यदवानलम् । द्वादशाङ्गश्रुतस्कन्धं पाठयन्ति पठन्ति ये॥.९ येषां वचोन्हदे स्नाता न सन्ति मलिना जनाः । तेऽर्च्यन्ते न कथं दक्षरुपाध्याया विरेफसः ॥३० यै 'रनङ्गानलस्तीवः सन्तापितजगत्त्रयः । विध्यापित: शमाम्भोभिः पापपङ्कापहारिभिः ।।३१ रहने पर कहीं पर भी नैमित्तिक कार्य नहीं देखा जाता हैं ॥२०॥ वे सिद्ध भगवन्त मुक्तिको छोडकर कभी भी संसारमें नहीं आते है। क्योंकि सुख देनेवाले पदको छोडकर कौन दुःखदायी पदको पाना चाहता हैं ।।२१।। जिनके आकाशके समान नित्य, निर्मल और महान् सुखका प्रमाण कभी भी नहीं पाया जा सकता है ।।२२।। ___ जो लोकके अग्र शिखर पर अवस्थित हो परम सुखी होकर कर्मरूप नट के द्वारा नचाये जानेवाले संसारको निरन्तर देखते रहते है, और जिनके स्मरण मात्रसे पुरुषोंके पाप दूर भाग जाते है ऐसे वे परम शद्ध स्वभावी सिद्ध भगवन्त मन वचन कायसे कैसे पूजने योग्य नहीं हैं. अपित् अवश्य ही पूजने योग्य है ।।२३-२४॥ जो पाँच प्रकारके आचारका स्वयं आचरण करते हैं, दूसरोंको आचरण कराते है और आचरण करनेवालोंको अनुमति देते हैं, जो पिताके तुल्य सब जीवोंके हितकारी हैं, जैसे कि चन्द्र किरणोंका स्पर्श करके चन्द्रकान्तमणि जलको छोडता है, उसी प्रकार जिनके चरणोंका स्पर्श करके जीव अपने पापोंको छोड़ देते है, जिनके उपदेशोंसे साधुजन अपने चारित्रको अति दृढ करते हैं, वे आचार्य परमेष्ठी श्रेष्ठ पदको जाने के इच्छुक भव्य पुरुषोंके द्वारा मन वचन कायसे पूजे जाते हैं ।।२५-२७|| जैसे उन्नत पर्वतोंसे पावन नदियां निकलती हैं, उसी प्रकार जिन विद्योन्नत सत्त्वशाली उपाध्यायोंसे पापोंका दलन करनेवाली पवित्र विद्याएँ उत्पन्न होती हैं, जो संसारकानन को जलाने के लिए दावानलके समान पंच आचारोंका स्वयं आचरण करते हैं, जो द्वादशाङगरूप श्रतस्कन्धको स्वयं पढते है और अन्य शिष्योंको पढाते है, जिनके वचनरूप सरोवरमें स्नान करनेवाले मलिन पुरुष भी मलिन नहीं रहते, प्रत्युत निर्मल हो जाते है, ऐसे पाप-रहित उपाध्याय परमेष्ठी चतुर पुरुषोंके द्वारा कैसे नहीं पूजे जाते है, अर्थात् अवश्य ही पूजे जाते हैं ॥२८-३०॥ जिन्होंने तीन जगत्को सन्तापित करनेवाले, तीव्र कामरूप अनल (अग्नि) को पापरूप कीचडके दूर करनेवाले शमभावरूप जलसे बुझा दिया है, जो भव-काननको जलानेकी इच्छासे निर्दोष तपको करते हैं, जिन्होंने सर्व प्रकारके परिग्रह को दूर कर दिया हैं, जो अपने १. मु. विरेपसः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -

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