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श्रावकाचार-संग्रह एकोऽशो धर्मकार्येऽतो द्वितीयः स्वगृहव्यये । तृतीयः संविभागाय भवेत्त्वत्सह जन्मनाम् ।। १५३॥ पुत्र्यश्च संविभागार्हाः समं पुत्रैः समांशकः । त्वं तु भूत्वा कुलज्येष्ठः सन्तति नोऽनुपालय ॥१५४।। श्रुतवृत्तक्रियामन्त्रविधिज्ञस्त्वमतन्द्रितः । प्रपालय कुलाम्नायं गुरुं देवांश्च पूजयन् ।।१५५।। इत्येवमनुशिष्य स्वं ज्येष्ठं सूनुमनाकुल: । ततो दीक्षामुपादातुं द्विजः स्वं गृहमुत्सृजेत् ।।१५६।।
(इति गृहत्यागः।) त्यक्तागारस्य सदष्टे:प्रशान्तस्य गृहोशिनः । प्राग्दीक्षौपयिकात् कालादेशाटकधारिणः ।।१५७।। यत्पुरश्चरणं दीक्षाग्रहणं प्रतिधार्यते । दीक्षाधं नाम तज्ज्ञेय क्रिया जातां द्विजन्मन. ॥ १५८॥
(इति दीक्षाद्यम् । ) त्यक्ताचेलादिसङ्गस्य जैनी दीक्षामुपेयुषः । धारणं जातरूपस्य यत्तत् स्याज्जिनरूपता ।। १५९ ॥ अशक्यधारणं चेदं जन्तूनां कातरात्मनाम् । जैनं निस्सङ्गतामुख्यं रूपं धीरनिषेव्यते ।।१६०।।
( इति जिनरूपता।) कृतदीक्षोपवासस्य प्रवृत्तेः पारणाविधौ । मौनाध्ययनवृत्तत्वमिष्टमा(तनिष्ठिते: । १६१ ॥ वाचंयमो विनीतात्मा विशुद्ध करणत्रयः । सोऽधीयीत श्रुतं कृत्स्नमामूलाद्गुरुसन्निधो ॥ १६२ ॥ श्रुतं हि विधिनानेन भव्यात्मभिरूपासितम् । योग्यतामिह पुष्णाति परत्रापि प्रसीदति॥ १६३ ॥
( अत्र मौनाध्ययनवृत्तत्वम् ।) पूत्रसे कहे-हे तात, हमारे परोक्षमें (पीछे) कुल-परम्परासे आया हुआ यह कुलधर्म तुम्हें भली भांतिसे पालन करना चाहिए । तथा मैंने अपने धनके जो तीन भाग किये है, उनका तुम्हें इस प्रकार विनियोग करना चाहिए-एक भाग तो धर्म-कार्यमें लगाना, दूसरा भाग अपने घरके कार्यो में व्यय करना और तीसरा भाग अपने सहजन्मा बन्धुओंको बराबर बाँट देना । पुत्रोंके साथ पुत्रियाँ भी समान भाग पानेके योग्य है । हे वत्स, तू कुलका ज्येष्ठ पुरुष हैं, यह ध्यानमें रख कर हमारी सन्तानका पालन करना ॥ १५२-१५४ ।। हे पुत्र, तू शास्त्र, सदाचार,क्रिया,मंत्र, आदिकी विधिका वेत्ता हैं, अतः प्रमाद-रहित होकर देव और गुरुकी पूजा करते हुए कुल-परम्पराका विधिवत् पालन करना ।। १५५ । इस प्रकारसे अपने ज्येष्ठ पुत्रको भली-भाँतिसे अनुशासित करके निराकुल होकर जिनदीक्षा ग्रहण करनेके लिए वह द्विज अपना घर छोड देवे ।। १५६ ॥ यह बाईसवीं गहत्याग क्रिया हैं । इस प्रकार गृहका त्याग करनेवाले, सम्यग्दृष्टि, प्रशान्तचित्त,एक वस्त्र-धारी उस गहस्थोंके स्वामीके जिनदीक्षाको ग्रहण करने के पूर्व कालमें जिन व्रतोंको धारण किया जाता है, उन सब व्रत-क्रियाओंके समुदायको द्विजकी दीक्षाद्य क्रिया कहते है । भावार्थ-जिन-(मुनि-) दीक्षाके पूर्व क्षल्लकके व्रत-धारण करनेका नाम दीक्षाद्य क्रिया हैं।।१५७-१५८। यह तेईसवीं दीक्षाद्यक्रिया हैं। पनः वस्त्र आदि सर्व परिग्रहका त्यागकर जैनीदीक्षाको प्राप्त होनेवाले उक्त पूरुषका यथाजात (नग्न-) रूप धारण करना जिनरूपता क्रिया हैं ।। १५९ ॥ जिनका आत्मा कातर या दीन हैं,ऐसे मनष्योंको इस जिनरूप मुद्राका धारण करना अशक्य हैं। निष्परिग्रहकी मुख्यतावाले इस जैन (दिगम्बर) रूपको धीर वीर पुरुष ही धारण करते हैं ।।१६०॥ यह चौबीसवीं जिनरूपता क्रिया हैं। जिसने दीक्षा धारणकर उपवास किया है, तथा विधिपूर्वक पारणा करने में प्रवत्ति की है ऐसा वह साध श्रुतके अभ्यास की समाप्ति पर्यन्त मौन धारणकर शास्त्रोंके अभ्यास में संलग्न रहता है, इसे मौनाध्ययनवृत्ति कहते है ॥ १६१ ॥ वचन-संयमी, विनय-शील,मन-कायसे विशुद्ध उस साधु-वचनको गरुके समीपमें रहकर आदिसे लेकर अन्त तक समस्त शास्त्रोंका अध्ययन करना चाहिये ॥१६२।। इसप्रकारकी विधिसे भव्यात्माओंके द्वारा उपासना किया गया यह शास्त्रज्ञान इस भवमें योग्यताको
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