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शीलसप्तकवर्णनम्
२५९ वार्ताऽसिमषिकृषिवाणिज्यादिशिल्पकर्मभिविशुद्धवृत्त्याऽर्थोपार्जनमिति । दति: दयापात्रसमसकलभेदाच्चतुविधा। तत्र वयादत्तिरनुकम्पयाऽनुग्रहोभ्यः प्राणिभ्यस्त्रिशुद्धिभिरभयदानम् । पात्रदत्तिर्महातपोधनेभ्यः प्रतिग्रहार्चनादिपूर्वकं निरवद्याहारदानं ज्ञानसंयमोपकरणादिवानं च । समदत्तिः स्वसमक्रियाय मित्राय निस्तारकोत्तमाय कन्याभूमिसुवर्णहस्त्यश्वरत्नादिदानम् । स्वसमानाभावे मध्यमपात्रस्यापि दानम् । सकलत्तिरात्मीयत्वसन्ततिस्थापनार्थ पुत्राय गोत्रजाय वा धर्म धनं समय प्रबानमन्वयत्तिश्च सैव । स्वाध्यायस्तत्त्वज्ञानस्याध्ययनमध्यापनं स्मरणं च। संयमः पञ्चाणुव्रतप्रवर्तनम् । तपोऽनशनादिद्वादशधिधानुष्ठानम् ।
इत्यार्यषटकर्मनिरता गृहस्था द्विविधा भवन्ति-जातिक्षत्रियास्तीर्थक्षत्रियाश्चेति । तत्र जातिः क्षत्रियब्राह्मणवैश्यशूद्रभेदाच्चतुविधाः । तीर्थक्षत्रियाः स्वजीवन विकल्पादनेकधा भिद्यन्ते ।
वान स्था अपरिगृहीतजिनरूपा वस्त्रखण्डधारिणो निरतिशयतपःसमुद्यता भवन्ति ।
भिक्षवों जिनरूपधारिणस्ते बहुधा भवन्ति-अनगारा यतयो मुनय ऋषयश्चेति । तत्रानगाराः सामान्यसाधव उच्चन्ते । यतय उपशम-क्षपकश्रेण्यारूढा मण्यन्ते । मुनयोऽवधिमनःपर्यय.
असि मषि कृषि वाणिज्य आदिसे और शिल्प कार्मोके द्वारा विशुद्धवृत्तिसे धनोपार्जन करनेको वार्ता कहते हैं । दत्ति दानको कहते है । वह दया पात्र सम और सकलके भेदसे चार प्रकार की है । अनुकम्पासे अनुग्रह करनेके योग्य प्राणियों के लिए मन वचन कायकी शुद्धिपूर्वक अभयदान देना दयादत्ति हैं। महातपस्वी साधुओंको प्रतिग्रह-पूजा दपूर्वक निर्दोष आहार देना और ज्ञान-संयमके उपकरण आदिका देना पात्रदत्ति है। अपने ही समान क्रियाओंका आचरण करनेवाले मित्रके लिए उत्तम निस्तारक गृहस्थाचार्य के लिए कन्या भूमि सुवर्ण हस्ती अश्व रथ और रत्न आदिका दान देना समदत्ति हैं। अपने समान व्यक्तिके अभावमें मध्यम पात्र श्रावकके लिए भी उक्त वस्तुओंका देना भी समदत्ति हैं। अपनी सन्तान-परम्परा चलाने के लिए पुत्रको या गोत्रज पुरुषको अपने द्वारा किये जानेवाले धर्मकार्य और धनको समर्पण करके सर्वस्व प्रदान करना सकलदत्ति है । इसे ही अन्वयदत्ति कहते हैं । तत्त्वज्ञानके पठन, पाठन और स्मरण करनेको स्वाध्याय कहते हैं। पाँच अणव्रतोंका पालन करना संयम हैं । और अनशनादिक बारह प्रकारके तपोंका आचरण करना तप कहलाता है।
इन उपर्युक्त छह प्रकारके आर्य कर्मों में निरत गृहस्थ दो प्रकारके होते हैं-जातिक्षत्रिय और तीर्थक्षत्रिय । क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्रके भेदसे जातिक्षत्रिय चार प्रकार के है। तीर्थक्षत्रिय अपनी आजीविकाके भेदोंसे अनेक प्रकारके होते है।
जिन्होंने जिनरूप दिगम्बर वेष ग्रहण नहीं किया हैं ऐसे वस्त्रखण्डके धारक और निरतिशय तप करने में सदा उद्यत पुरुष वानप्रस्थ कहलाते हैं।
जिनरूपको धारण करनेवाले भिक्षु कहलाते हैं । वे अनेक प्रकारके होते हैं। यथाअनगार यति मुनि और ऋषि । सामान्य साधुओंको अनगार कहते है । उपशम श्रेणी और क्षपकश्रेणी पर आरूढ और कर्मोकी उपशमना एवं क्षपणा करने में उद्यत साधु यति कहे जाते हैं।
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