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अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
२७१ मनोमवाक्रान्तविदग्धरामाकटाक्षलक्षीकृतकान्तकायः । दिगङ्गनाध्यापितशुद्धकोतिर्धर्मेण राजा भवति प्रतापी ॥ ६४ मतगजा जङ्गमशैललीलास्तुरामा निजितवायुवेगाः ।। पदातयः शक्रपदातिकल्पा रथा विवस्वद्रथसनिकायाः ।। ६५ योषाश्च शोभाजितदेवयोषा निलिम्पवासप्रतिमा निवासाः । अनन्यलभ्या धन्यधान्यकेशा भवन्ति धर्मेण पुराजितेन ।। ६६ परेऽपि भावा भुवने पवित्रा भवन्ति पुण्यन विना जनस्य । विना मृणाल: (हि नालः) क्वचनापि दृष्टाः सम्पद्यमाना न पयोजखण्डाः ।।१७ स्वपूर्वलोकानुचितोऽपि धर्मो ग्राह्यः सतां चिन्तितवस्तुदायी। प्रप्रार्थयन्ते न किमीश्वरत्वं स्वजात्ययोग्यं जनता सदाऽपि ।। ६८ त्यजन्त्यनकामतमप्यवयं सम्प्राप्य पुण्यं जनयाचनीयम् । कुष्टं कुलायातमपि प्रवीणा: कल्पत्वमासाद्य परित्यजन्ति ।। ६५ मूर्खापवादत्रसनेन धर्म मुञ्चन्ति सन्तो न बुधार्चनीयम् । ततो हि दोषः परमाणुमात्रो धर्मव्युदासे गिरिराजतुल्य: ।। ७० निखिलसुखफलानां कल्पने वृक्ष कुमतमतिविमोता ये विमुञ्चन्ति धर्मम् । विमलमणिविधानं पावनं दृष्टतुष्टय स्फुटमगतबोधाः प्राप्य ते वर्जयन्ति । ७१
अपने महान् साम्राज्यको धर्मके प्रसादसे ही धारण करता हैं ।। ६३॥ कामदेवके आक्रमणसे आक्रान्त सुन्दर चतुर नारियोंके कटाक्षोंसे जिनका सुन्दर देह लक्ष्य बनाया गया है और जिनकी निर्मल कीत्ति दशों दिशाओंमें व्याप्त हो रही हैं,ऐसा कामदेव सदृश अति सुन्दर और प्रतापी राजा धर्मके प्रभावसे होता है ।।६४।। जंगम शैलोंकी लीलाके धारक मदोन्मत्त मतंगज, (हस्ती) वायुके वेगको जीतनेवाले अश्व, इन्द्रके पदातियोंके तुल्य पैदल चलनेवाले सैनिक, सूर्यके समान शीघ्रगामी रथ, अपनी शोमासे देवाङगनाओंको जीतनेवाली स्त्रियाँ, इन्द्र-भवनके सदृश निवास,और अन्य जनोंके द्वारा अलभ्य धन-धान्यके भण्डार पूर्वोपार्जित धर्मसे ही प्राप्त होते हैं ।। ६५-६६।।
इनके अतिरिक्त संसारमें अन्य भी जितने उत्तम एवं पवित्र पदार्थ है, वे सभी मनुष्यको पुण्यके विना नहीं प्राप्त होते हैं । क्या मृणालके विना कभी कहीं पर कमलवन पाये जाते देखे गये हैं ॥६७।। अपने कुलके पूर्व पुरुषोंके द्वारा असंचित भी चिन्तित वस्तु-दायी सत्य धर्म सज्जनोंको ग्रहण करना चाहिये । क्या अपनी जातिके अयोग्य ईश्वरपनेको जनता सदा ही नहीं चाहा करती हैं ॥६८।। जैसे प्रवीण पुरुष औषधिके द्वारा कायाकल्प करके कुल क्रमागत भी कुष्ट रोगका परि. त्याग कर देते है,वैसे ही जनताके द्वारा पूज्य, पवित्र, पुण्यरूप धर्मको प्राप्त करके बुद्धिमान् लोग वश-परम्परागत पापरूप अधर्मको छोड देते है ।।६९।। सज्जन पुरुष मूर्ख जनोंके अपवादके भयसे ज्ञानियोंसे पूजनीय धर्मको नहीं छोडते है, क्योंकि मूोसे निन्दा किये जाने पर तो दुःखरूप दोष परमाणु बराबर ही हैं, किन्तु धर्मको छोड देने पर गिरिराज सुमेरुके समान महान् दुःख प्राप्त होता है ।।७०॥ जो अज्ञानी पुरुष कुबुद्धिजनोंके अपवादसे भयभीत होकर समस्त सुखरूप फलोंको देनेके लिए कल्पवृक्षके समान धर्मको छोड देते है, वे निश्चयसे पावन निर्मल मणियोंके निधानको
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