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अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
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जाते दोषे द्वेषरागादिदोषरग्ने भक्त्याऽऽलोचना या गुरूणाम् । पञ्चाचाराचारकाणामदोषा सोक्ता गर्दा गर्हणीयस्थ हन्त्री ।। ७७ रागद्वेषक्रोधलोभप्रपञ्चाः सर्वानर्थावासभूता दुरन्ताः । यस्य स्वान्ते कुर्वते न स्थिरत्वं शान्तात्माऽसौ कथ्यते भव्यसिंहः ।। ७८ लोकाधीशाभ्यर्चनीयाध्रियुग्मे तीर्थाधीशे साधुवर्गे सपर्या । या निर्व्याजा भाव्यते भव्यलोकैर्भक्तिः सेष्टा जन्मकान्तारशस्त्री॥ ७९ कारण्यं छत्तकामरकामर्धर्माधारावतिः प्राणिवर्गे। भैषज्याद्यः प्रासुकैर्वय॑ते या तद्वात्सल्यं कथ्यते तथ्यबोधेः॥ ८० जन्माम्भोधौ कर्मणा भ्राम्यमाणे जीवनामे दुःखितेऽनेक भेदे । चित्तात्वं यद्विधत्ते महात्मा तत्कारुण्यं दयते दर्शनीयः ।। ८१ प्रवध्यते दर्शनमष्टभिर्गुणः शरीरिणोऽमीभिरपास्तदूषणः। गुरूपदेशरिष धर्मवर्धन विधीयमानहृदये निरन्तरम् ।। ८२ अपारसंसारसमुद्रतारकं वशीकृतं येन सुदर्शनं परम् । वशीकृतास्तेन जनेन सम्पदः पररलभ्या विपदामनास्पदम् ।। ८३
पापरूप वृक्षोंको नाश करनेवाली निन्दा कही गई है।॥७६।। राग-द्वेष आदि दोषों द्वारा पापकार्यके हो जाने पर पंच आचारके आचरण करनेवाले गुरुजनोंके आगे भक्तिके साथ अपने दोषोंकी निर्दोष आलोचना की जाती हैं,उसे निन्दनीय दोषोंकी नाश करनेवाली गर्दा कहा गया है ॥७७॥ सभी अनर्थोके निवासभूत और दुःखसे जिनका अन्त होता है ऐसे राग-द्वेष, क्रोध, लोभ आदिक विकारी भाव जिस पुरुषके हृदयमें स्थिरता नहीं करते हैं, वह भव्यसिंह शान्तात्मा प्रशंसनीय होता हैं । अर्थात् जिनका मन राग द्वेषादिसे रहित शान्त होता हैं, उसके उपशम गुण जानना चाहिये ॥७८ । तीनों लोकोंके स्वामी इन्द्र, नरेन्द्र और नागेन्द्रसे जिनके चरणकमल युगल पूजे जाते हैं ऐसे तीथंकरदेवमें तथा साधुवर्गमें भव्य लोगोंके द्वारा जो निश्छल पूजा की जाती है, वह संसार-कान्तारको काटने वाली भक्ति कही गई हैं ।७९।। कर्मरूप काननके छेदनेके इच्छुक एवं अन्य कामनाओंसे रहित पुरुषोंके द्वारा धर्मके आधारभूत प्राणियों पर जो औषधि आदिक प्रासुक द्रव्योंसे वैयावृत्त्य की जाती है, उसे यथार्थज्ञानियोंने वात्सल्य गुण कहा है।।८०॥ संसाररूप समुद्र में कर्मके निमित्तसे परिभ्रमण करनेवाले महान् दुःखी ऐसे अनेक भेदोंवाले प्राणिवर्गमें जो महान् आत्मा चित्तकी दयालुताको धारण करता है, उसे दर्शनीय आचार्योंने कारुण्यभाव कहा हैं ।।८१॥ जिस प्रकार हृदयमें निरन्तर धारण किये गये गुरुजनोंके उपदेशोंसे धर्मका ज्ञान बढता है, उसी प्रकार दूषण-रहित इन उपर्युक्त आठों गुणोंके द्वारा जीवके सम्यग्दर्शन वृद्धिको प्राप्त होता हैं ।।८२।। जिस जीवने इस अपार संसार-समुद्रसे पार उतारने वाले और विपदाओंसे रहित ऐसे श्रेष्ठ सम्यग्दर्शनको अपने वश में कर लिया उस पुरुषने दूसरोंके द्वारा अलभ्य ऐसी सभी श्रेष्ठ सम्पदाएँ अपने वशमें कर लीं, ऐसा समझना चाहिए ।।८३।।
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