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अमितगतिकृतः श्रावकाचार रात्रिभोजनमधिश्रयन्ति ये धर्मबुद्धिमधिकृत्य दुधियः । ते क्षिपन्ति पविवन्हिमण्डलं वृक्षपद्धतिविवृद्धये स्फुटम् ।। ५४ ये विधृत्य संकलं दिनं क्षुधा भञ्जते सुकृतकांक्षया निशि। ते विवृध्य फलशालिनी लतां भस्मयन्ति फलकांक्षया पुनः ।। ५५ ये सदाऽपि घटिकाद्वयं त्रिधा कुर्वते दिनमुखान्तयोर्बुधाः । भोजनस्य नियम विधीयते मासि तैः स्फुटमुपोषितद्वयम् ॥ ५६ रोगशोककलिराटिकारिणी राक्षसीव भय सूयनी प्रिया । कन्यका दुरितपाकसम्भवा रोगिता इव निरन्तरापदः ।। ५७ देहजा व्यसनकर्मयन्त्रिताः पन्नगा इव वितीर्णभीतयः । निर्धनत्वमनपायि सर्वदापात्रदानमिव दत्तवृद्धिकम् ।। ५८ सङ्कट सतिमिरं कुटीरकं नीचचित्तमिव रन्ध्रसंकुलम् । नीचजातिकुलकर्मसङ्गमः शोलशौचशमधर्म निगमः ।। ५९ व्याधयो विविधदुःखदायिनो दुर्जना इव परापकारिणः ।
सर्वदोषगणपीड्यमानता रात्रिभोजनपरस्य जायते ॥ ६० पुण्यकारी दिनके भोजनकी और और पापकारी रात्रिके भोजनकी समानताको कहते हैं,वे सुखकारी प्रकाश और दुःखकारी अन्धकारकी समानताको प्रकट करते हैं ।।५३।। जो दुर्बुद्धि मनुष्य धर्म बुद्धि करके रात्रिमें भोजन करते है, वे निश्चयसे वृक्षोंकी परम्पराकी वृद्धि के लिए वज्राग्निके मण्डलको वृक्षों पर फेंकते है ।।५४॥ जो लोग पुण्यकी आकांक्षासे सारे दिन भूख की बाधा सहन कर रात्रिमें भोजन करते है, वे फल पाने की इच्छासे पहले लताको बढाकर पुनः उस फलवाली लताको मानों भस्म करते हैं ।।५५।। जो ज्ञानी लोग सदा ही दिनकी आदि अन्तकी दो दो घडी कालको मन वचन कायसे छोडकर भोजनका नियम धारण करते है, वे प्रत्पेक मासमें निश्चयसे दो उपवास करते हैं ।।५६ । भावार्थ-प्रतिदिन प्रातः और सायंकालके एक एककी मिलाकर दो महत भोजनका त्यागकर मध्यवर्ती समयमें ही भोजन करते हैं, उन्हें मासके तीस दिनोंमें साठ मुहूर्त भोजनका त्याग रखनेसे दो उपवासका पुण्यलाभ होता हैं, क्योंकि एक दिनरातके तीस महत होते हैं। अब आचार्य रात्रि-भोजनके दोष कहते हैं-रात्रि भोजन करने वाले मनुष्यको रोग, शोक, कलह और राड करने वाली, तथा भयको देनेबाली राक्षसीके समान स्त्री मिलती है, दुष्कर्मके उदयसे उत्पन्न हुई, निरन्तर आपदाएँ देनेवाली रोगिणी दुर्भाग्यवाली कल्याएं पैदा होती हैं ।।५।। दुर्व्यसन और कुकर्म करने में चतुर, सांपोंके समान सदा भय देनेवाले पुत्र उत्पन्न होते हैं, अपात्रदानके समान निरन्तर दुःखोंकी वृद्धि करने वाली दरिद्रता निरन्तर प्राप्त होती हैं ।५८ । नीच पुरुषके धनके समान अनेक छिद्रोंसे व्याप्त, संकटोंसे भरा, अन्धकार मय घर प्राप्त होता है, सदा नीच जाति और नीच कुल और नीच कार्य करने का समागम मिलता है, तथा शील शौच शम और धर्मका निर्गमन होता हैं, अर्थात् कभी धर्म-धारण करनेका भाव नहीं होता है ।।५९॥ परका अपकार करने वाले दुर्जनोंके समान नाना प्रकारके दुःखोंको देनेवाली व्याधियाँ घेरे रहती है, और रात्रिभंजी पुरुष सदा सभी दोषों एवं रोगोंसे पीडित रहता हैं ।।६०।। अब आचार्य रात्रिभोजन त्याग करनेके गुण बतलाते है-जो मनुष्य सदा रात्रि
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