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अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
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स्यक्तातरौद्रयोगो भक्त्या विदधाति निर्मलध्यानः । सामायिक महात्मा सामायिक संयतो जीवः।।८६ कालत्रितये त्रेधा कर्तव्या देववन्दना सद्भिः । त्यक्त्वा सर्वारम्भं भवमरणविभीतचेतस्कैः ॥ ८७ सदनारम्भनिवृतराहारचतुष्टयं त्रिधा हित्वा । पर्वचतुष्के स्थेयं शमसंयमसाधनोयुक्तैः ।। ८८ ताम्बूलगन्धमाल्यस्नानाभ्यङ्गादिसर्वसंस्कारम् । ब्रह्मवतरतचित्त: स्थातव्यमुपोषितैस्त्यक्त्वा ।।८९ उपवासानपवासकस्थानेष्वेकमपि विधत्ते यः । शक्त्यनुसारपरोऽसौ प्रोषधकारो जिनरुक्तः ।। ९० उपवासं जिननाथा निगदन्ति चतुविधाशनत्यागम् । सजलमनुपवासममी एकस्थानं सकृद्धक्तम् ॥९१ भोगोपभोगसंख्या विधीयते येन शक्तितो भक्त्या । भोंगोपभोगसंख्याशिक्षाव्रतमुच्यते तस्य ।। ९२ ताम्बूलगन्धलेपनमज्जनभोजनपुरोगमो भोगः । उपभोगो भूषास्त्रीशयनासनवस्त्रवाहाद्यः ॥ ९३ परिकल्प्य संविभागं स्वनिमित्तकृताशनौषधादीनाम् । भोक्तव्यं सागाररतिथिव्रतपालिभिनित्यम् ९४ अततिः स्वयमेव गहं संयमविराधयन्ननाहतः। यः सोऽतिथिरुद्दिष्टः शब्दार्थविचक्षणःसाधः॥९५ अशनं पेयं स्वाधं खाद्यमिति निगद्यते चतुर्भेदम् । अशनमतिविधयो निजशक्त्या संविभागोऽस्य । की अनन्त काय वाली वनस्पति दयालु पुरुषोंको त्यागना चाहिए ।।८५।। अब शिक्षाव्रतका वर्णन हुए पहले सामायिक शिक्षाव्रतको कहते है-जो आर्त और रौद्रध्यानको छोडकर और निर्मल धर्मध्यानसे युक्त होकर भक्ति के साथ सामायिक करता है, वह महात्मा सामायिक संयत जीव जानना चाहिए । ८६।। जन्म-मरणके भयसे डरने वाले सज्जन पुरुषोंको पूर्वाह,मध्यान्ह और अपराण्ह इन तीनों ही कालोंमें सर्व आरम्भको छोडकर देववन्दना करना चाहिए। यह प्रथम सामायिक शिक्षाक्त है ।।८७॥
अब दूसरे प्रोषधोपवास शिक्षाव्रतको कहते है-शमभाव और संयमके साधनामें उद्यक्त पुरुषोंको सदा प्रत्येक मासकी ही दोनों अष्टमी और दोनों चतुर्दशी इन चारों पर्वोमें घरके आरम्भसे निवृत्त होकर और खाद्य, स्वाद्य, लेह्य, पेय इन चारों ही प्रकारके आहारको छोडकर धर्मस्थानमें रहना चाहिए ।। ८८।। उपवास करने वाले श्रावकोंको ब्रह्मचर्यव्रत में संलग्न चित्त होकर ताम्बूल, सुगन्ध, माला, स्नान, उबटन आदि सभी शारीरिक संस्कार छोडकर एक स्थान पर धर्म-साधन करते हुए ठहरना चाहिए ॥८९।। जो-जो श्रावक शक्तिके अनुसार उपवास, अनुपवास,
और एकाशन इनमेंसे एकको भी पर्वके दिनोंमें करता हैं, वह भी जिनेन्द्रदेवके द्वारा प्रोषधव्रतधारी कहा गया हैं ।।९० । चारों प्रकारके त्यागको जिनेन्द्र भगवान्ने उपवास कहा हैं, जलके सिवाय शेष तीन प्रकारके आहार त्यागको अनुपवास और एक बार भोजन करनेको एकस्थान या एकाशन कहा है ।।९।।
अब तीसरे भोगोपभोगपरिमाण शिक्षाव्रतको कहते हैं-जो अपनी शक्तिके अनुसार भवितसे भोग और उपभोगकी सख्याका नियम करते हैं, उसे सन्त पुरुषोंने भोगोपभोगसंख्यान शिक्षाव्रत कहा हें ॥९॥ ताम्बल, गन्ध-लेपन, स्नान, भोजन आदि एक बार भोगने में आनेवाले पदार्थ भोग कहलाते हैं और आभूषण, स्त्री, शय्या, आसन, वस्त्र, सवारी आदि बार-बार भोगने में आनेवाले पदार्थोंको उपभोग कहते हैं ॥९३३ अब चाथे अतिथिसंविभाग शिक्षावतको कहते है-अतिथिसंविभाग व्रतके पालन करने वाले गहस्थोंको अपने निमित्त बनाये गये भोजन औषधि आदिका अतिथिके लिए संविभाग करके नित्य भोजन करना चाहिए ॥९४॥ अतिथि' इस शब्दके अर्थ-विचारक पुरुषोंने उसे अतिथि कहा है जो कि संयमकी विराधना नहीं करता हुआ बिना बुलाये श्रावकके घर स्वयं जाता है ।।९५।। अशन, पेय, स्वाद्य और खाद्य इस
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