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अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
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जीवरमतः सह कर्म मूतं सम्बध्यते नेति वचो न वाच्यम् । अनादिभूतं हि जिनेन्द्रचन्द्राः कर्माङ्गिसम्बन्धमदाहरन्ति । ६४ इत्यादि मिथ्यात्वमनेकभेदं यथार्थतत्त्वप्रतिपत्तिसूदि । विवर्जनीयं त्रिविधेन सद्भिर्जनं व्रतं रत्नमिवाश्रयद्भिः ।। ६५ एकादशोक्ता विदितार्थतत्त्वरुपासकाचारविविभेदाः । पवित्रमारोढुमनस्यलभ्यं सोपानमार्गा इव सिद्धिसोधम् ।। ६६
दार्शनिकः यो निर्मलां दष्टिमनन्यचित्तः पवित्रवृत्तामिव हारयष्टिम् । गुणावनद्धां हृदये निधत्ते स वर्शनी धन्यतमोऽभ्यधायि ।। ६७
प्रतिक: विभूषणानीव दधाति धीरो व्रतानि यः सर्वसुखाकराणि । आऋष्टमीशानि पवित्रलक्ष्मीं तं वर्णयन्ते वतिनं वरिष्ठाः ॥ ६८
सामायिक: रौद्रार्थमुक्तो भवदुःखमोची, निरस्तनिशेषकषायदोषः ।
सामायिकं यः कुरुते त्रिकालं सामायिकस्थः कथितः स तथ्यम् ।। ६९ रहित जो पुरुष चेतना-रहित सभी पदार्थोको कार्यकारी नहीं मानते है, उनके मतमें धर्म, अधर्म, आकाश, कालादि सभी द्रव्य निष्फलताको प्राप्त होते है ।।६३।। और यह कहना कि अमूर्त जीवोंके साथ मूर्त कर्म सम्बन्धको प्राप्त नहीं होते है, पो नहीं कहना चाहिए, क्योंकि जिनेन्द्रचन्द्र जीव और कर्मके सम्बन्धको अनादिकालीन कहते हैं और अनादि वस्तु तर्कका विषय नहीं होती है ।। ६४।। इत्यादि अनेक भेदवाले और यथार्थ तत्त्वज्ञानका नाश करनेवाले मिथ्यात्वका रत्न के समान जन व्रतोंका आश्रय करनेवाले सज्जन पुरुषोंको मन वचन कायसे परित्याग करना चाहिए ॥६५॥
___ अब आचार्य श्रावककी ग्यारह प्रतिमाओंका वर्णन करते है-तत्त्वार्थके जानने वाले महापुरुषोंने श्रावकाचार विधिके ग्यारह भेद कहे हैं, जो कि अन्य साधारण जनोंके द्वारा अलभ्य और पवित्र सिद्धिरूपी सौध (महल) पर आरोहण करनेके लिए सोपान मार्गके समान
१. गर्शनिक श्रावक जिसका अन्यत्र चित्त नहीं लग रहा हैं, ऐसा जो पुरुष पवित्र और गोल मणियों वाली गुण (सूत्र) से पिरोयी गई हारकी लडीके समान निमल समीचीन दृष्टिको अपने हृदयमें धारण करता हैं, वह दर्शन प्रतिमाधारी उत्तम धन्य पुरुष कहा गया हैं ।।६७॥
२. व्रतिक श्रावक जो धीर पुरुष सर्व प्रकारके सुखोके भण्डार और पवित्र स्वर्ग-मोक्षरूप लक्ष्मीको आकृष्ट करने में समर्थ ऐसे बारह व्रतोंको आभूषणोंके समान धारण करता है, उसे व्रतधारियोंमें श्रेष्ठ पुरुष व्रत प्रतिमाधारी कहते है ॥६८॥
३. सामायिकी श्रावक जो रुद्र और आर्तध्यानसे रहित हैं, सांसारिक दुःखोंका त्याग करना चाहता है और
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