Book Title: Shravakachar Sangraha Part 1
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 353
________________ श्रावकाचार-संग्रह तत्कथाश्रवणानन्दो निन्दाश्रवणवर्जनम् । अलुब्धत्वमनालस्यं निन्द्यकर्मव्यपोहनम् ।। २७ कालक्रमाव्युदासित्वमुपशान्तत्वमार्जवम् । विज्ञेयानीति चिन्हानि षडावश्यककारिणः॥ २८ सामायिकं स्तवः प्राजर्वन्दना सप्रतिक्रिया। प्रत्याख्यानं तनसर्गः षोढाऽऽवश्यकमीरितम् ।। २९ द्रव्यतः क्षेत्रतः सम्यक्कालतो भावतो बुधैः । नामतो न्यासतो ज्ञात्वा प्रत्येकं तन्नियुज्यते ॥ ३० जीविते मरणे योगे वियोगे विप्रिये प्रिये । शत्रौ मित्रे सुखे दुःखे साम्यं सामायिक विदुः ॥३१ जिनानां जितजेयानामनन्तगुणमागिनाम् । स्तवेऽस्तावि गुणस्तोत्रं नामनिर्वचनं तथा ॥ ३२ कर्मारण्यहताशानां पञ्चानां परमेष्ठिनाम् । प्रणतिर्वन्दनाऽवादि त्रिशुद्धया त्रिविधा बुधः ॥ ३३ द्रव्यक्षेत्रादिसम्पन्नदोषजालविशोधनम् । निन्दागर्हाक्रियालीढं प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ ३४ नामावीनामयोग्यानां षण्णां त्रेधा विवर्जनम् । प्रत्याख्यानं समाख्यातमागाम्यागोनिषिद्धये ।। ३५ आवश्यकेषु सर्वेषु यथाकालमनाकुलः । कायोत्सर्गस्तनूत्सर्गः प्रशस्तध्यानवर्द्धकः । ३६ ज्ञेयास्तत्रासनं स्थानं कालो मुद्रा तनूत्सतिः । नामावर्तप्रमा दोषाः षडावश्यककारिभिः ॥ ३७ अस्यते स्थीयते यत्र येन वा वन्दनोद्यतैः । तदासनं विबोद्धव्यं देशपद्मासनादिकम् ।। ३८ संसक्तः प्रचुरच्छिद्रस्त्रणपश्विादिदूषितः । विक्षोभको हृषीकाणां रूपगन्धरसादिभिः ।। ३९ दूसरोंकी निन्दाके सुननेका त्यागी हो, लोभ-रहित हो, आलस्य-रहित हो, निन्दा कर्म न करता हो, काल-क्रमका उल्लंघन करनेवाला न हो, उपशान्त चित्त हो और मार्दवगुणका धारक हो ये षट् आवश्यक करनेवालेके चिन्ह जानना चाहिए ॥२७-२८ ज्ञानी पुरुषोंने आवश्यक छह प्रकारके कहे हैं-सामायिक, स्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ।।२।। ये छहों ही प्रकारके आवश्यक नाम, स्थापना,द्रव्य,क्षेत्र, काल, और भाव की अपेक्षा छह-छह प्रकारके जानकर ज्ञानियोंको करना चाहिए।।२९-३०।। १ सामायिक का स्वरूप-जीवनमें, मरणमें, संयोगमें, वियोगमें, प्रियमें, अप्रियमें, शत्रुमें, मित्रमें, सुख में, और दुःख में समता रखनेको सामायिक कहते हैं ।।३।। २ स्तवनका स्वरूप-जिन्होंने जीतने योग्य कर्मोंको जीत लिया हैं ऐसे अनन्त गुणशाली जिनेन्द्रदेवोंके गुणोंकी स्तुति करना. तथा उनके नामोंकी निरुक्ति करना स्तवन कहलाता हैं ।।३२॥ ३ वंदनाका स्वरूप-कर्म रूपवनको जलाने के लिये अग्नि समान पांचों परमेष्ठियोंको मन वचन कायकी शुद्धिसे नमस्कार करनेको ज्ञानियोंने तीन प्रकारकी वन्दना कहा है ।।३३।। ४ प्रतिक्रमणका स्वरूप-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदिके निमित्तसे उत्पन्न हुए दोषोंके पुंजकी शुद्धि करना, निन्दा और गर्दारूप क्रियाके साथ अपनी आलोचना करना सो प्रतिक्रमण कहा गया है ॥३४॥ ५ प्रत्याख्यानका स्वरूप-धर्म साधन के अयोग्य नामादिक अर्थात् नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन छहोंका वचन कायसे त्याग करना प्रत्याख्यान कहा गया है । यह प्रत्याख्यान आगामी काल में पापोंके निषेधके लिए करना आवश्यक हैं ॥३५॥ ६ कायोत्सर्गका स्वरूप-सभी आवश्यक कर्मोंमें यथा समय आकुलता-रहित होकर शरीरसे ममत्वका त्याग करना कायोत्सर्ग कहलाता हैं। यह आवश्यक प्रशस्तध्यानका बढाने वाला है ॥३६।। उपर्युक्त छह आवश्यक करनेवालोंको उनके योग्य आसन, स्थान, काल, मुद्रा, कायोत्सर्ग, प्रणाम, आवर्त और प्रमाण दोष जानना चाहिए ।।३७।।। इनमेंसे सबसे पहले आसनका वर्णन करते है-वन्दना करनेके लिए उद्यत पुरुष जिस स्थानपर या जिसके द्वारा 'आस्यते' अर्थात् स्थिर होते हैं, वह देश (क्षेत्र) और पद्मासनादिक आसन जानना चाहिए ॥३८।। अब आवश्यक करनेके अयोग्य क्षेत्रको कहते है-जो स्थान स्त्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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