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अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
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यथा वितीर्ण भुजगाय पावनं प्रजायते प्राणहरं विषं पयः । भवत्यपात्राय धनं गुणोज्ज्वलं तथा प्रदत्तं बहुदोषकारणम् ।।५३॥ वितीयं यो दानमसंयतात्मने जनः फलं कांक्षति पुण्यलक्षणम् । वितीर्य बीजं ज्वलिते स पावके समीहते सस्यमपास्तदूषणम् ।।५४॥ विमुच्य यः पात्रमवद्य विच्छिदे कुधीरपात्राय ददाति भोजनम् । स कषितं क्षेत्रमपोह्य सुन्दरं फलाय बीजं क्षिपते बतोपले ।।५५।। यथा रजोधारिणि पुष्टिकारणं विनश्यति क्षीरमलाबुनि स्थितम् । प्ररूढमिथ्यात्वमलाय देहिने तथा प्रदत्तं द्रविणं विनश्यति ।।५६।। नो दातारं मन्मथाक्रान्तचित्तः, संसारातर्याति पापावलीढः । अम्मोराशेस्तराल्लोहमय्या नावा लोहं तार्यमाणं न दृष्टम् ॥५७।। ग्रन्थारम्मक्रोधलोभादिपुष्टो ग्रन्थारम्भकोधलोभादि पुष्टम् । जन्माराते रक्षितुं तुल्यदोषी नूनं शक्तो नो गृहस्थं गृहस्यः ।।५८॥ लोभमोहमदमत्सरहीनो लोभमोहमदमत्सरगहम। पाति जन्मजलधेरपरागो रागवन्तमपहस्तितपाप: ॥५९।। 'भूरिदोषनिचिताय फलार्थी यो ददाति धनमस्तविचारः । तद्ददाति मलिम्लुचहस्ते कानने पुनरपि ग्रहणाय ॥६०॥ दानं पतिभ्यो दवता विधानतों मतिविधेया भवदुःखशान्तये ।
दुरन्तसंसारपयोधिपातिनी न भोगबुद्धिर्मनसाऽपि धीमता ॥६॥ विना उदारता भी सुखकारी नहीं होती है -1५२॥ जैसे सांपके लिये पिलाया गया पवित्र भी दूध प्राण-हारी विषको ही उत्पन्न करता है, उसी प्रकार अपात्रके लिए दिया गया उज्ज्वल गुणकारी भी धन अनेक दोषोंका कारण होता हैं ।। ५३।। जो मनुष्य असंयमी पुरुषको दान देकर पुण्यवाले फलको चाहता हैं, बह जलती हुई अग्निमें बीजको डाल करके दोष-रहित धान्यको चाहता है ॥५॥ जो कुबुद्धि पापके नाशके लिए पात्रको छोडकर अपात्रके लिए भोजन देता है,वह जोते गये सुन्दर खेतको छोडकर फल-प्राप्तिके लिए पाषाणपर बीज फेंकता हैं, यह अत्यन्त दुःख हैं ।।५५
जैसे कडवीरजको धारण करनेवाली तूंबडीमें रखा गया पुष्टिकारक दूध विनष्ट हो जाता हैं, इसी प्रकार मिथ्यात्वमलसे व्याप्त पुरुषके लिए दिया गया धन भी विनष्ट हो जाता है।।५६।। काम विकारसे जिसका चित्त व्याकुल है ऐसा पापसे व्याप्त पात्र संसारके दुःखसे दाताको रक्षा नहीं कर सकता हैं । जैसे दुस्तर समुद्रसे लोहमयी नावके द्वारा लोहा तिराया गया किसीने नहीं देखा है ।।५७।। परिग्रह, आरम्भ और क्रोध-लोभादि कषायोंसे पुष्ट गृहस्थ, परिग्रह, आरम्भ और क्रोध-लोभादि कषायोंसे पुष्ट गृहस्थको संसाररूपी वैरीसे रक्षा करने के लिए समर्थ नहीं हैं क्योंकि दोनों ही समान दोषोंके धारक है ।।५८। किन्तु लोभ मोह मद गत्सरसे रहित, पापोंसे मुक्त वीतरागी पात्र लोभ, मोह, मद और मत्सरके स्थान और रागवाले दाताकी संसार-समुद्रसे रक्षा करता हैं ॥५९।। जो विचार-रहित पुरुष फल पानेका इच्छुक होकर सर्वदोषोंसे भरे हुए पुरुषको धन देता है, वह वापिस पानेके लिए वनके भीतर चोरके हाथ में धनको देता हैं ।।६०।। अतएव १. मु. 'सर्व' पाठ ।
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