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श्रावकाचार-संग्रह
सर्वत्र भ्रमता येन कृतान्तेनेव देहिनः। विपाटयन्ते न तल्लोहं दत्तं कस्यापि शान्तये ॥ ४७ यदर्थ हिस्यते पात्रं यत्सदा भयकारणम् । संयमा येन हीयन्ते दुष्कालेनेव मानवाः ॥ ४८ रागद्वेषमदक्रोधलोभमोहमनोमवाः । जन्यन्ते तापका येन काष्ठेनेव हुताशनाः ।। ४९ तोनाष्टापदं यस्य दीयते हितकाम्यया । स तस्याष्टापदं मन्ये दत्ते जीवितशान्तये ॥ ५० संसजन्त्यङिगनो येष भरिशस्त्रसकायिकाः । फलं विश्राणने तेषां तिलानां कल्मषं परम् ।। ५१ प्रारम्मा यत्र जायन्ते चित्राः संसारहेतवः । तत्सम ददतो घोरं केवलं कलिलं कलम् ।। ५२ पीडा सम्पद्यते यस्या वियोगे गोनिकायतः । यथा जीवा विहन्यन्ते पुच्छशङ्गखुरादिभिः ।। ५३ यस्यां प्रदुह्यमानायां तर्णकः पीडयते तराम् । तां गां वितरतो श्रेयो लभ्यते न मनागपि ॥ ५४ या सर्वतीर्थदेवानां निवासी मतविग्रहा । दीयते सा गौः कथं दुर्गतिगामिभिः ।। ५५ तिलधेनुं घृतधेनुं कांचनधेनुं च रुक्मधेनुं च । परिकल्प्य भक्षयन्तश्चण्डालेभ्यस्तरां पापाः ।। ५६ या धर्मवनकुठारी पातकवसतिस्तपोदयाचोरी । वैरायासासूयाविषादशोकश्रमक्षोणी ॥ ५७ जाने पर शस्त्रोंसे विदीर्ण किये गर्भिणी स्त्रीके समान प्राणी मरते है, वह भूमि क्या देने वालेके फलको दे सकती हैं? अर्थात् नहीं दे सकती हैं, अतः भूमिका दान योग्य नहीं है ॥४६।। जिसके द्वारा सर्वत्र परिभ्रमण करने वाले यमराजके तुल्य प्राणी मारे जाते है, वह दिया गया लोहेका शस्त्र किसीकी भी शान्तिके लिए नहीं हो सकता है। अतः लोहदान योग्य नहीं हैं ॥४७॥ जिस सुवर्णकी प्राप्तिके लिए लोग पात्रको भी मार देते है जो सदा भयका कारण है, जिसके द्वारा संयम नष्ट होता हैं, जैसे कि दुष्कालके द्वारा म नव नष्ट होते है, जिसके द्वारा राग द्वेष मद क्रोध लोभ मोह और काम विकार जैसे सन्ताप-दायी दुर्भाव पैदा होते है, जैसे कि काष्ठसे सन्तापक पावक उत्पन्न होता हैं । ऐसा अष्टापद (सुवर्ण) जो अन्यको हित-कामनासे देता हैं, वह उसके जीवनको शान्त करने के लिए अष्टापदनामका हिंसक प्राणी देता हैं, ऐसा मैं मानता हूँ। अतएव सुवर्णदान भी देने के योग्य नहीं हैं ॥४८-५०॥ जिन तिलोंमें भारी त्रसकायिक जीव निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं ऐसे उन तिलोंके दान देने में महा पापका संचय ही फल जानना चाहिए । अतः तिल-दान भी योग्य नहीं ॥५१॥
__ जिसमें रहने पर संसारके कारणभूत अनेक प्रकारके आरम्भ होते है, ऐसे घरको देनेवाले पुरुषके केवल घोर पापरूप ही फल प्राप्त होता हैं । अतः गृह-दान भी योग्य नहीं हैं ।।५२॥ गायोंके समूह से वियुक्त करने पर जिसके भारी पीडा होती हैं, जो पूंछ, सींग और खुर आदिसे जीवोंको मारती हैं और जिसके दुहने पर बछडा अत्यन्त पीडित होता है, ऐसी गायको दानमें देते हए पुरुष का जरा सा भी कल्याण नहीं होता हैं । अतः गो-दान भी योग्य नहीं है।।५३-५४।। जिन अन्यमतावलम्बियोंने गायके शरी रमें सर्वतीर्थ ओर सर्व देवताओं का निवास कहा है. उसी गायको दुर्गतिगामी पुरुष कैसे तो देते हैं और लेने वाले कैसे लेते हैं, यह महान् आश्चर्यकी बात है । अतः गो-दान भी योग्य नहीं हैं ।।५५।। जो लोग तिल की गाय, घीकी गाय, सोनेकी गाय और चांदीकी गाय बनाकर पुन: उसे खाते है, वे लोग तो चाण्डालसे भी अधिक पापी हैं, क्योंकि चाण्डाल तो कम से कम गायको नहीं खाता है ।।५६।। जो कन्या धर्मरूप वनको काटनेके लिए कुठारी के समान हैं, अनेक पापोंकी वसति है, तप और दयाको चुरानेवाली है, वैर, आयास असूया, विषाद, शोक और श्रमकी भूमि हैं और जिसमें आसक्त हुए पुरुष अति दुःखवाले संसार
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