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अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
परोषहकरो दंशशीतवातातपादिभिः । असम्बद्धजनालाप: सावद्यारम्भ गर्हितः । ४० आर्द्राभूतो मनोऽनिष्ट: समाधाननिषूदकः । योऽशिष्टजनसञ्चारः प्रदेशं तं विवर्जयेत् ॥। ४१ विविक्तः प्रासुकः सेव्यः समाधानविवर्धकः । देवर्जुदृष्टिसम्पातवजितो देवदक्षिणः ॥ ४२ जनसञ्चार निर्मुक्तो ग्राह्यो देशो निराकुलः । नासन्नो नानिदूरस्थः सर्वोपद्रववर्जितः ॥ ४३ स्थेयोऽच्छिद्रं सुखस्पर्श विशब्दकमजन्तुकम् । तृणकाष्ठादिकं ग्राह्यं विनयस्योपबृंहकम् ।। ४४ जङ्घाया जङ्घाऽऽश्लेषे मध्यभागे प्रकीर्तितम् । पद्मासनं सुखाधायि सुसाध्यं सकलैर्जनैः ॥ ४५ बुधैरुपधोभाग जंघयोरुभयोरपि । समस्तयोः कृते ज्ञेयं पर्यङ्कासनमासनम् ॥ ४६ ऊर्वोरुपरि निक्षेपे पादयोविहिते सति । वीरासनं चिरं कर्तुं शक्यं धीरैर्न कातरैः ॥ ४७
तपाणिमये योगे स्मृतमृत्कुटुकासनम् । गवासनं जिनैरुक्तमार्याणां यतिवन्दने ॥ ४८ विनयासक्तचित्तानां कृतिकर्मविधायिनाम् । न कार्यव्यतिरेकेण परमासनमिष्यते ॥ ४९
पुरुष - नपुंसकादिसे संसक्त हो, जिस भूमि पर छेद या बिल अधिक हो, जो तृण धूलि आदिसे दूषित हो, रूप रस गन्ध आदिके द्वारा जो इन्द्रियोंके विक्षोभको करे, डांस, मच्छर, शीत, उष्णता और पवनादिके द्वारा परीषह उत्पन्न करे, अज्ञानी जनोंके असंबद्ध वचनालाप से युक्त हो, सावद्य और आरम्भसे निन्दा - योग्य हो, पानीसे या सीलनसे गीला हो, मनको अप्रिय या अनिष्टकारी हो, चित्तके समाधानका विनाशक हो और जहाँ पर अशिष्ट जनोंका संसार हो, ऐसे आवश्यकोंके अयोग्य प्रदेशको छोड देना चाहिए ।।३९-४१ ।। अब आवश्यक करनेके योग्य क्षेत्रको कहते हैं- जहाँ पर सर्वथा एकान्त हो, प्रासुक भूमि हो, साधर्मी व्रतीजनोंके सेवन योग्य हो, चित्तमें समाधान बढाने वाला हो, देवकी सीधी दृष्टि के संपात रहित हो, देवके दक्षिण भाग में हो जन-संचारसे निर्मुक्त हो, आकुलता रहित हो, न अधिक समीप हो और न अधिक दूर हो और सर्व प्रकार के उपद्रवसे रहित हो । ऐसा स्थान आवश्यक करनेके लिए ग्रहण करनेके योग्य हैं ।१४२-४३।। आवश्यक करनेवाला जिस भूमि, काष्ठपट्ट या चटाई आदि पर बैठे वह स्थिर हो, छिद्र - रहित हो, सुख स्पर्शरूप हो, शब्द-रहित हो, जीव-रहित हो, विनयका बढ़ाने वाला हो, ऐसे तृण, काठ, चटाई आदिको आवश्यक करने के लिए ग्रहण योग्य कहा गया है || ४८|| अब सामायिक आदि आवश्यक करने के योग्य आसनका निरूपण करते है- जंबाका जंघा के साथ समभाग में आश्लेपपूर्वक बैठनेको पद्मासन कहा गया है । यह सर्व जनोंके द्वारा सुसाध्य है और सुखदायक है, अतः इसे सुखासन भी कहते है ।। ४५ ।। भावार्थ- दायिनी जाँघके नीचे बायें पैरका, तथा बायीं जाँघ के नीचे दाहिने पैरको रखकर बैठना पद्मासन या सुखासन हैं। दोनों ही जंघाओंमेंसे एक जाँघके आधे भाग में और दूसरी जाँघके ऊर्ध्व भाग में करने पर बुधजनोंको पर्यकासन नामका आसन जानना चाहिए । अर्थात् बायीं जाँघके ऊपर दायें पैरको, अथवा दाहिनी जाँघके ऊपर बायें पैरको रखकर बैठना पर्यकासन हैं ॥ ४६ ॥
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दोनों जाँघों के ऊपर दोनों पैरोंको रखकर बैठनेको वीरासन कहते हैं । यह वीरासन चिर काल तक वीर पुरुष ही मांड सकते हैं, कायर पुरुष नहीं मांड सकते है ||४७|| दोनों एडियों को मिलाकर उकडूं बैठनेको उत्कुटुकासन कहते है । गायके समान बैठनेको गवासन कहते है । साधुओंकी वन्दना के समय आर्यिकाओं को गवासनसे वन्दना करनेका विधान जिनेन्द्रदेव ने किया हैं ||४८ || विनय में जिनका चित्त आसक्त हैं, ऐसे कृतिकर्म करने वाले पुरुषोंको आवश्यक कार्यों के बिना अन्य आसन करना नहीं कहा गया हैं । अर्थात् सामायिक आदिके समय पद्मासन आदिका
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