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अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
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हिनस्ति मंत्री वितनोत्यमैत्री तनोति पापं विधुनोति धर्मम् ।। पुष्णाति दुःखं विधुनोति सौख्यं न वञ्चना कि कुरुते विनिन्द्यम् ।। ५० न बुध्यते तत्त्वमतत्त्वमङ्गी विमोह्यमानो रमसेन येन। त्यजन्ति मिथ्यात्वविषं पटिष्ठाः सदा विभेदं बहुदुःखदायि । ५१ वदन्ति केचित्सुखदुःखहेतुर्न विद्यते कर्म शरीरमाजाम् । मानस्य तस्मिन्निखिलस्य हानेर्मानव्यपेतस्य न चास्ति सिद्धिः ।। ५२ सत्त्वेऽपि कर्तुं न सुखाविकायं तस्यास्ति शक्तिर्गतचेतनत्वात् । प्रवर्तमाना: स्वयमेव दृष्टा विचेतना क्वापि मया न कार्ये ।। ५३ एषा महामोहपिशाचश्यन युज्यते गीरभिधीयमाना। प्रमाणमस्माकमवाध्यमानं यतोऽस्य सिद्धावनुमानमस्ति ॥ ५४ रागरोषमदमत्सरशोकक्रोधलोमभयमन्मथमोहाः । सर्वजन्तुनिवहरनभूताः कर्मणा किम् भवन्ति विनते ॥ ५५ ते जीवजन्याः प्रभवन्ति नूनं नैषाऽपि भाषा खलु युक्तियुक्ता।
नित्यप्रसक्तिः कथमन्यथेषां सम्पद्यमाना प्रतिषेधनीया ॥५६ का पोषण करती है और सुखका विनाश करती है, वह माया किस निन्द्य कार्यको नहीं करती हैं, अर्थात् सभी निन्द्य कार्योंको करती हैं। इस प्रकार माया शल्यका वर्णन किया।।५०।। अब मिथ्यात्व शल्यका वर्णन करते है-जिसके द्वारा अति शीघ्र विमोहित हुआ प्राणी तत्त्व और अतत्त्वको नहीं समझता हैं, ऐसे बहुत दुःखोंके देनेवाले अनेक प्रकारके मिथ्यात्वरूप विषका चतुर पुरुष सदा ही परित्याग करते हैं ॥५शा कितने ही मतावलम्बी कहते है कि प्राणियोंको सुख-दुख देने में कारणभूत कोई कर्म नहीं है, क्योंकि उसकी सिद्धि करने में सभी प्रमाणोंकी हानि अर्थात् अभाव है और प्रमाणके अभावमें कर्मकी सिद्धि हो नहीं सकती हैं । भावार्थ-अन्य मतवाले जो कर्मको नहीं मानते है, उनका कहना हैं कि कर्म नामक पदार्थ प्रत्यक्ष प्रमाणका विषय नहीं है, क्योंकि वह इन्द्रियोंसे नहीं दिखता हैं । अनुमान प्रमाणका भी विषय नहीं हैं, क्योंकि उसका साधक कोई लिंग दृष्टिगोचर नहीं होता है, जिससे कि उसकी सिद्धि की जा सके । कर्मके समान अन्य पदार्थके नहीं पाये जानेसे वह उपमान प्रमाणसे भी सिद्ध नहीं होता हैं । कमके विना नहीं होनेवाले पदार्थकी अप्राप्ति से यह अर्थापत्ति प्रमाणका भी विषय नहीं है। हमारे आगममें कर्म नामक पदार्थका वर्णन नहीं है अतः आगमसे भी उसकी सिद्धि नहीं है। परिशेष में अभाव प्रमाणसे उसका अभाव ही सिद्ध होता है 1५२।' उनका कहना है कि जैन लोग कर्मको अचेतन मानते हैं और इसीलिए उसकी जीवमें सुख-दुःखादि कार्य करनेकी शक्ति नहीं हैं। उनका कहना है कि मैने किसी भी कार्य में प्रवर्तमान कोई भी अचेतन पदार्थ कहीं पर भी नहीं देखा है इसलिए कर्म नामका कोई पदार्थ नहीं हैं ।।५३।। आचार्य उनका उत्तर देते हुए कहते है-कि महामोहरूप पिशाचके वश में हुए लोगोंकी यह उपर्युक्त वाणी योग्य नहीं है, क्योंकि हमारे पास कर्मकी सिद्धि में अबाध्यमान अनुमान प्रमाण है ।।५४।। यथा-सर्वप्राणिसमूहके द्वारा अनुभवमें आनेवाले ये राग, द्वेष, मद, मत्सर, शोक, क्रोध,लोभ, भय, काम और मोह आदि विकार भाव कर्मके विना कैसे हो सकते है? अतः इन विकाररूप कार्योंसे उनके कारणरूप कर्मका अनुमान होता हैं ।।५५॥ यदि आप कहें कि ये रागादि भाव नियमसे जीव-जनित ही है, कर्म-जनित नहीं, सो ऐसी भी भाषा आपकी निश्चयसे युक्ति-संगत नहीं है,
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