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श्रावकाचार-संग्रह
पापनिमित्तं हि वधः पापस्य विनाशने कथं शक्तः । छेदनिमित्त: परशुः शक्नोति लतां न वर्धयितुम् ।। ३६ हिस्राणां यदि घाते धर्मः सम्भवति विपुलसुखदायी। सुखविघ्नस्तहि कृतः परजीवविघातिनां घाते ॥ ३७ यस्माद् गच्छन्ति गति निहता गुरुदुःखसङ्कटा हिस्राः ।
तस्माद् दु:खं वधतः पापं न कथं भवति घोरम् ।। ३८ दुःखवतां भवति वधे धर्मो नेदमपि युज्यते वक्तुम् । मरणे नरके दु:खं घोरतरं वार्यते केन ।। ३९ सुखितानामपि घाते पापप्रतिषेधने परोऽधर्मः । जीवस्य जायमानो निषेधितुं शक्यते केन ॥ ४० पौर्वापर्यविरुद्धं सम्यक्त्वमहीध्रपाटने वज्रम् । इत्थं विचार्य सद्भिः परवचनं सर्वथा हेयम् ॥ ४१ अज्ञानतो यदेनो जीवानां जायते परमघोरम् । तच्छक्यते निहन्तुं ज्ञानव्यतिरेकत। केन ॥ ४२ यो धर्मार्थ छिन्ते हिंस्राहिस्रसुखदुःखिनो भविनः । पीयूषं स्वीकर्तुं स वपति विषविटपिनो नूनम् ॥४३ वचसा वपुषा मनसा हिंसा विवघाति यो जनो मूढः । जन्मवनेऽसौ दीर्घ दीर्घ सञ्चूर्यते दुःखी ॥४४ सकता है? क्योंकि शालिधान्यसे उत्पन्न होने वाला शालि-तन्दुल कोदोंसे उत्पन्न हुआ नहीं दिखाई देता है॥३५॥ जीवोंका घात तो पापके उपार्जनका ही निमित्त है। वह पापका विनाश करने में समर्थ नहीं हो सकता। जो कुठार लताके काटने में निमित्त हैं, वह लताको बढानेके लिए समर्थ नहीं हो सकता है॥३६॥ यदि हिसक प्राणियोंके घातमें महान् फलको देनेवाला धर्म संभव है, तो फिर अन्य जीव-घातक प्राणियोंके घात करनेपर उनके सुखमें विघ्न भी संभव हैं,अतः हिंसक जीवोंके घातसे सुखका उपार्जन मानना असंगत हैं ।।३७।। यत: मारे गये हिंसक प्राणी घोर दुःखोंसे व्याप्त नरकादि दुर्गतिको जाते है, अतः उन्हें दुःखको देनेवाले पुरुषके घोर पाप कैसे नहीं होगा ॥३८॥ जो लोग यह कहते हैं कि दुःखी प्राणियोंके मारनेमें धर्म होता हैं,क्योंकि मारने वाला उसको दुखसे छुडा देता है, आचार्य इसका निषेध करते हुए कहते है कि यह कहना भी योग्य नहीं है, क्योंकि दुखी प्राणी के मरण होनेपर आगे नरकमें मिलने वाला अति घोर दुःख कौन रोक सकेगा? ।।३९।। भावार्थ-दुखी जीवको मारनेसे वह दुःखसे छूट जायगा, इसका क्या प्रमाण है। अधिक संभव तो यही हैं कि जो यहीं पर महाकष्ट भोग रहा है, वह मरकर नरकमें
और भी घोर दुःख भोगेगा। अतः दुःखीको मारनेसे वह दुःखसे छूट जायगा, यह मानना सर्वथा अनुचित हैं।
कोई लोग कहते है कि सुखी जीवोंके घात करने पर उनके द्वारा किये जाने वाले पापोंके रोकनेसे परमधर्म होता है। उनका यह कथन भी योग्य नहीं हैं, क्योंकि जीवके अन्यत्र उत्पन्न होने पर वहां किये जाने वाले पापोंको कौन रोक सकता हैं? इसलिए सुखी जीवोंको मारने में धर्म नहीं हैं ।।४०।। इस प्रकार विचार कर पूर्वापर विरोधसे युक्त और सम्यक्त्वरूप पर्वतके भेदने में वज्रके समान अज्ञानियों के वचन सज्जनोंको सर्वथा त्यागने के योग्य है ॥४१॥ अज्ञानसे जीवोंके जो महाघोर पापका उपार्जन होता हैं, वह ज्ञानके अतिरिक्त और किससे विनाशको प्राप्त किया जा सकता है? अर्थात् अज्ञान-जनित पाप सद्-ज्ञानसे ही दूर हो सकता है,अतः सद् ज्ञानकी प्राप्तिका प्रयत्न करना चाहिए ॥४२॥ जो लोग धमके लिए हिंसक, अहिंसक, सुखी और दुखी प्राणियोंको मारते है, वे निश्चयसे अमृत पाने के लिए विषके वृक्षको बोते है ॥४३॥ जो
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