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अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
मांसवत्मननिविष्टचेतसः सन्ति पूजिततमा नरा यदि । गूथयूथ कृतदेह पुष्टयः सूकरा न नितरां तथा कथम् ।। २१ भक्षयन्ति पलमस्तचेतनाः सप्तधातुमय देहसम्भवम् । यद्वदन्ति च सुचित्तमात्मनः किं विडम्बनमतः परं बुधाः ॥ २२ भुञ्जते पलमघौघकारि ये ते व्रजन्ति भवदुःखमूजितम् । ये पिबन्ति गरलं सुदुर्जरं ते धयन्ति मरणं किमद्भुतम् ॥ २३ चित्रदुःखसुखदानपण्डिते ये वदन्ति पिशिताशने समे । मृत्युजीवितविवर्द्धनोद्यते ते वदन्ति सदृशे विषामृते ।। २४ जायते द्वितयलोकदुःखदं पिशितमङ्गसङ्गिनाम् । भक्षितं द्वितयजन्मशर्मदं जायतेऽशनमपास्तदूषणम् ॥ २५ मांसमित्थमवबुध्य दूषितं त्यज्यते हितगवेषिणा त्रिधा । मन्दिरं न विदता निषेव्यते तीव्र दृष्टिविषपन्नगाकुलम् ॥ २६ माक्षिकं विविधजन्तुघातजं स्वादयन्ति बहुदुःखकारि ये । स्वल्पजन्तुविनिपातिभिः समास्ते भवन्ति कथमत्र खट्टिकैः ।। २७ ग्रामसप्तकविदाहरेसा तुल्यता न मधुभक्षिरेफसः । तुल्यमञ्ज लिजलेन कुत्रचिनिम्नगापतिजलं न जायते ।। २८
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लिया है ||२०|| यदि मांस भक्षण में आसक्त चित्त पुरुष उत्तम और पूज्य माने जावें, तो विष्टासमूहसे देहके पुष्ट करनेवाले सूकर कैसे अति पूज्य न माने जावें ||२१|| जो बुद्धि-रहित पुरुष सप्तधातुमय देहसे उत्पन्न होनेवाले मांसको खाते है और फिर भी अपने आपके पवित्रता कहते है, सो हे बुधजनो, उससे अधिक और क्या विडम्बना हो सकती है ||२२|| जो पाप-पुंजका संचय करनेवाले माँसको खाते है, वे अति प्रचण्ड सांसारिक दुःखोंको प्राप्त होते है । जो अति दुर्जर विषको पोते है, वे यदि मरणको प्राप्त होते हैं तो इसमें क्या आश्चर्य है ||२३|| जो लोग नाना प्रकार दुःख देनेवाले मांसको और अनेक प्रकारके सुख देनेवाले अन्नाहारको समान कहते है, वे मृत्यु देनेवाले विषको और जीवन बढानेवाले अमृतको समान कहते हैं ||२४|| देहधारियोंके मांस का भक्षण दोनों लोकोंम दुःखोंका देनेवाला है और दूषण रहित अन्नके आहारका भक्षण दोनों लोकोंमें सुखका देनेवाला हैं ।। २५ । इस प्रकारसे अतिदोष युक्त मांसको जान करके अपने हित के अन्वेषक जन मन वचन कायसे उसका त्याग करते है । क्योंकि जानकार लोग तीव्र दृष्टि विषधारी सर्पोंसे व्याप्त मकान में निवास नहीं करते हैं ||२६|| अब आचार्य मधु-सेबनका निषेध करते है - नाना प्रकारके जन्तुओंके घातसे उत्पन्न होनेवाले और भारी दुखोंको करनेवाले मधुको जो लोग खाते हैं, वे इस लोक में अल्प जन्तुओंके मारनेवाले खटीकों के समान कैसे हो सकते हैं ? कहनेंका भाव यह हैं कि मधु-भक्षी पुरुष खटीकसे भी अधिक पापी है ||२७|| सात ग्रामोंके जलाने के पापके साथ भी मधु-भक्षीके पापकी समानता नहीं है । अंजली में भरे जलके साथ समुद्र के जलकी समानता कहीं भी कभी नहीं हो सकती हैं । भावार्थ - जैसे अंजली के जलसे समुद्रका जल असंख्यात गुण होता है, उसी प्रकार सात ग्रामोंके जलानेके पापसे भी असंख्यात गुणा पाप मधुके भक्षण में
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