________________
२९०
श्रावकाचार-संग्रह
यो निरीक्ष्य यतिलोकदूषणं कर्मपाकजनितं विशुवधीः । सर्वथाऽप्यवति धर्मबुद्धितः कोविदास्तमुपगूहकं विदुः ॥ ७७ विवर्तमान जिननाथवर्मनो निपीड्यमानं विविधः परीषदः । विलोक्य यस्तत्र करोति निश्चलं निरुच्यतेऽसौ स्थितिकारकोत्तमः ॥ ७८ करोति सङ्घ बहुधोपसर्गरूपते धर्मधियाऽनपेक्षः। चतुर्विधव्यापृतिमुज्ज्वला यो वात्सल्यकारी समतः सुदृष्टिः ।। ७९ निरस्तदोषे जिननाथशासने प्रभावमा यो विदधाति मक्तितः । तपोवयाज्ञानमहोत्सवादिभिः प्रभावकोऽसौ गदितः सुवर्शनः ।। ८० गुणैरमीभिः शुमदृष्टिकण्ठिका दधाति बहां हृदि योऽष्टभिः सदा ।। करोति वश्याः सकला: स सम्पदो वभूरिवेष्टा: सुभगो वशंवदः ।। ८१ सुदर्शनं यस्य स नामभाजनं सुदर्शनं यस्य स सिद्धिभाजनम् । सुदर्शनं यस्य स धीविभूषितः सुदर्शनं यस्य स शीलभूषितः ।। ८२ नो जायेते पावने ज्ञानवृत्ते सम्यक्त्वेन प्राणिनो जितस्य । शर्माधारे कोशराज्ये न दृष्टे नूनं क्वापि न्यायहीनस्य राज्ञः ।। ८३ सुवर्शनेनेह विना तपस्यामिच्छन्ति ये सिद्धिकरी विमूढाः । कांक्षन्ति बीजेन विनाऽपि मन्ये कृषि समुद्धा फलशालिनी ते ।। ८४
धारक कहा गया हैं 11७६।। जो विशुद्धबुद्धि पुरुष साधु लोगों में कर्म-विपाक-जनित किमी दूषणको देखकर धर्मबुद्धिसे सर्वथा रक्षा करता हैं, उसे ज्ञानियोंने पाँचवें उपगूहन अग का धारक कहा हैं ॥७७॥ जो विविध परिषहोंसे पीडित होकर जिनराजके धर्ममार्गसे भ्रष्ट होते हुए पुरुषको देखकर उसे धर्ममार्गमें निश्चल करता हैं, वह छठे स्थितिकरण अंगके धारकोंमें उत्तम कहा गया हैं ।।७८!। नाना प्रकारके उपसर्गोके द्वारा पीडित चतुर्विध संघ पर जो वांछा-रहित होकर धर्मबुद्धिसे निर्मल वैयावृत्त्य करता है, वह सातवें वात्सल्य अंगका धारक सम्यग्दृष्टि माना गया हैं ॥७९।। जो निर्दोष जिनराजके शासनकी तप, दया, ज्ञान, महोत्सवादिके द्वारा शक्तिके अनुसार प्रभावना करता है, वह आठवें प्रभावना अंगका धारी प्रभावक सम्यग्दृष्टि कहा गया है ।।८०॥
जो पुरुष इन उपर्युक्त आठ गुणोंसे निबद्ध शुभ सम्यग्दर्शनरूपी कंठी (माला) को सदा अपने हृदयमें धारण करता हैं, वह सर्व सम्पदाओंको अपने वशमें कर लेता हैं। जैसे कि उत्तम मालाका धारण करनेवाला सौभाग्यशाली मिष्ट-भाषी पुरुष अभीष्ट स्त्रियोंको अपने वशमें कर लेता हैं ॥८॥ जिसके सम्यग्दर्शन है वही पुरुष सुपात्र है, जिसके सम्यग्दर्शन हैं वही मुक्तिका भाजन हैं, जिसके सम्यग्दर्शन हैं, वही बुद्धिसे विभूषित है और जिसके सम्यग्दर्शन है वही शीलसे विभूषित है ।।८२॥ सम्यवत्वसे रहित जीवके ज्ञान और चारित्र पवित्र नहीं होते है । जसे निश्चयसे न्याय-रहित राजाके यहाँ सुखके आधारभूत कोष और राज्य नहीं देखे जाते ।।८३। जो मूढमति पुरुष सम्यग्दर्शनके विना केवल तपस्याको सिद्धि (मुक्ति) की करनेवाली मानते हैं,वे मानो बीज
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org