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श्रावकाचार-संग्रह
सुदर्शने लब्धमहोदये गुणाः श्रिया निवासा विकसन्ति देहिनि । विरस्तदोषापचये सरोवरे हिमेतरांशाविव पंकजाकराः ।। ८४ दर्शनबन्धनं परो बन्धुर्वर्शनला मान्न परो लाभः । दर्शन मित्रान परं मित्रं दर्शनसोख्यान्न परं सौख्यम् ॥ ८५ लब्ध्वा मुहूर्तमपि ये परिवर्जयन्ते
सम्यक्त्वरत्नमनवद्यपदप्रदायि ।
भ्राम्यन्ति तेऽपि न चिरं भववारिराशौ
तद्विभ्रतां चिरतरं किमिहास्ति वाच्यम् ॥ ८६ पापं यजतमनेकमवैर्दुरन्तेः
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सम्यक्वमेतदखिलं सहसा हिनस्ति । भस्मीकरोति सहसा तृणकाष्ठशशि
कि नोजितोज्ज्वलशिखो ज्वलनः समृद्धम् ॥ ८७
नैव भवस्थितिवेदिनि जीवें दर्शनशालिनि तिष्ठति दुःखम् । कुत्र हिमस्थितिरस्ति हि देशे ग्रीष्मदिवाकरदीधितितप्ते ॥ ८८ भुवन जनताजन्मोत्पत्तिप्रपञ्चनिषूदिनी,
जिनमतरुचिश्चिन्तामण्या यकैरुपमीयते । त्रिदशसरणीं ते भाषन्ते समां परमाणुना,
प्रभवति मतिमिथ्या मिथ्यावृशामथवा सदा ।। ८९
महान् उदयवाले और समस्त दोषोंके समूहसे रहित ऐसे सम्यग्दर्शन के प्राप्त हो जानेपर जीवोंमें लक्ष्मी निवासभू अनेक गुण स्वयं विकासको प्राप्त होते है । जैसे रात्रिके दूर होनेपर और सूर्यके उदय होने पर सरोवर में कमलोंका समूह विकासको प्राप्त होता हैं ॥ ८४ ॥ संसार में सम्यग्दर्शनरूप बन्धुके समान दूसरा कोई बन्धु नहीं, बम्यग्दर्शनके लाभके समान कोई अन्य लाभ नहीं, सम्यग्दर्शनरूप मित्र के समान कोई दूसरा मित्र नहीं और सम्यग्दर्शन के सुखके समान और कोई दूसरा सुख नहीं है ॥ ८५ ॥ ऐसे निर्दोष मोक्ष पदके देनेवाले सम्यक्त्वरूप रत्नको एक मुहूर्तमात्र के लिए भी पाकर जो छोड देते है, वे जीव भी संसार समुद्र में चिरकाल तक परिभ्रमण नहीं करते है । फिर जो इस सम्यक्त्व रत्नको चिरकाल तक धारण करते है । उनका तो कहना ही क्या हैं ॥८६॥
जीव अनेक दुरन्त भावों द्वारा जो पाप उपार्जित करता है, उस सबको यह सम्यक्त्व सहसा क्षणमात्रमें विनष्ट कर देता है । क्या स्फुरायमान उज्ज्वल शिखाओंवाली अग्नि, तृण और काष्ठके विशाल समूहको सहसा भस्म नहीं कर देती हैं ॥ ८७॥ संसारकी स्थिति जाननेवाले ऐसे सम्यग्दर्शनसे युक्त जीवमें दुःख नहीं ठहर सकते है । जैसे ग्रीष्मकालके सूर्यकी किरणों से प्रदीप्त प्रदेशमें शीतकी स्थिति कैसे रह सकती है ॥८८॥ तीनों लोकोके प्राणियोंके संसारकी उत्पत्ति के प्रबन्धकी नाश करनेवाली ऐसी जनमत-विषयक श्रद्धाको जो लोग चिन्तामणिरत्नसे उपमा देते है, वे लोग आकाशको परमाणुके समान कहते है । अर्थात् चिन्तामणिरत्नसे जिन मतकी श्रद्धारूप सम्यक्त्वरत्न बहुत अधिक महत्त्वशाली है । अथवा मिथ्यादृष्टि जीवोंकी बुद्धि सदा
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