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श्रावकाचार-संग्रह
अमरनरविभूति यो विधायार्चनीयां नयति निरपवादां लीलया मुक्तिलक्ष्मीम् । अमितगजिनेशः सेव्यतामेष धर्मः शिवपदमनवा लब्धकामेरकामैः ।। ७२ इत्यमितगतिकृतश्रावकाचारे प्रथमः परिच्छेदः ॥१॥
द्वितीयः परिच्छेदः मिथ्यात्वं सर्वदा हेयं धर्म वर्धयता सता। विरोधो हि तयोढिं मृत्युजीवितयोरिव ॥१ संयमा नियमः सर्व नाश्यन्ते तेन पावना: । क्षयकालानलेनेव पादपाः फलशालिनः ॥२ अतत्त्वमपि पश्यन्ति तत्त्वं मिथ्यात्वमोहिताः । मन्यन्ते तृषितास्तोयं मृगा हि मगतष्णिकाम् । ३ विम्रान्ता क्रियते बुद्धिमनोमोहनकारिणा । मिथ्यात्वेनोपयुक्तेन मद्येनेव शरीरिणः ॥ ४ पवार्थानां जिनोक्तानां तवद्धानलक्षणम् । ऐकान्तिकाविभेदेन सप्त भेदमुदाहृतम् ।। ५ क्षणिकोऽक्षणिको जीवः सर्वदा सगुणोऽगुणः । इत्यादिभाषमाणस्य तदैकान्तिकमिष्यते ॥६ सर्वज्ञेन विरागण जीवाजीवादिभाषितम् । तथ्यं न वेति संकल्पो दृष्टिः सांशयिकी मता ।। ७ आगमा लिगिनो देवा धर्माः सर्वे सदा समा: । इत्येषा कथ्यते बुद्धिःपुंसो वैनयिकी जिनः ॥ ८ पूर्णः कुहेतुवृष्टान्तैर्न तत्त्वं प्रतिपद्यते । मण्डलश्चर्मकारस्य भोज्यं चर्मलवरिव ।। ९
पाकर दुष्टजनोंको प्रसन्न करनेके लिए छोड़ देते है ॥७१।। जो धर्म प्रार्थनाके योग्य देव और मनुष्योंकी विभूतिको देकर लीलामात्रसे निर्दोष मोक्षलक्ष्मीको प्राप्त करता है,वह अमित (अनन्त) ज्ञानशाली जिनेन्द्रदेवके द्वारा कहा गया धर्म सांसारिक कामनाओंसे रहित किन्तु निर्दोष शिवपदकी कामना करनेवाले पुरुषोंको अवश्य सेवन करना चाहिये ॥७२।।
इस प्रकार अमितगति आचार्य-रचित श्रावकाचारमें
प्रथम परिच्छेद समाप्त हुआ। धर्मकी वृद्धि करनेवाले सत्पुरुषको मिथ्यात्वका सर्वथा त्याग करना चाहिए, क्योंकि मिथ्यात्व और धर्म इन दोनोंमें मरण और जीवनके सदृश महान् विरोध है ।।१।। जैसे प्रलयकालकी अग्निसे फलशाली वृक्ष जला दिये जाते हैं, वैसे ही मिथ्यात्वके द्वारा सभी पवित्र यम,नियम और संयम नाश कर दिये जाते हैं ॥२॥ मिथ्यात्वसे मोहित पुरुष अतत्त्वको भी तत्त्व मानते है । जैसे कि तृषातुर हरिण मृगतृष्णाको भी जल मानते है ।।३॥ जैसे मद्यके द्वारा प्राणीकी बुद्धि विभ्रमरूप हो जाती है, उसी प्रकार मनको मोहित करनेवाले मिथ्यात्वसे उपयुक्त जीवकी बुद्धि भी विभ्रमरूप कर दी जाती हैं ।।४।। जिनेन्द्रदेवके द्वारा कहे गये पदार्थोके श्रद्धान न करनेको मिथ्यात्व कहते है, उसे एकान्तिक आदि सात भेद कहे गये है।।५।। आगे ग्रन्थकार उन सातों भेदोंका निरूपण करते है-जीव सर्वथा क्षणिक ही है, अथवा अक्षणिक (नित्य) ही है, सगुण ही हैं, अथवा निर्गुण ही है, इत्यादि एकान्तरूपसे कथन करनेवालेके ऐकान्तिक मिथ्यात्व कहा गया हैं ।।६।। वीतराग सर्वज्ञ देवके द्वारा कहे गये जीव-अजीवादि तत्त्व सत्य हैं कि नहीं, ऐसा विचार करनेवालेके सांशयिक मिथ्या त्व माना गया है ।।७।। सभी आगम, सभी गुरु सभी देव और सभी धर्म सदा समान हैं, इस प्रकारकी मनुष्यको बुद्धिको जिनदेवोंने वै नयिक मिथ्यात्व कहा हैं ।।८।। खोटे हेतु और दृष्टान्तोसे परिपूर्ण मनुष्य यथार्थ तत्त्वको नहीं प्राप्त कर पाता है ।
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